ऑस्ट्रेलिया में रह रही 40 वर्षीय प्रियदर्शनी पाटिल कर्नाटक वापस आती हैं और आकर आत्महत्या कर लेती हैं। यह आत्महत्या एक माँ द्वारा अत्यंत भीषण परिस्थितियों में उठाया गया कदम है। यह कदम एवं घटना हर किसी के दिल को झकझोरने वाली होनी चाहिए और है ही, कि कैसे एक माँ अपने ही बच्चों की कस्टडी की लड़ाई में इस सीमा तक निराश और हताश हो गयी कि उसने अपने जीवन को समाप्त करना ही श्रेयस्कर समझा। यह पीड़ादायक घटना है और विदेशों में रह रहे भारतीयों के साथ बच्चों की कस्टडी को लेकर यह एकमात्र घटना हो, ऐसा भी नहीं है।
जब ऑस्ट्रेलिया से लौटकर प्रियदर्शिनी पाटिल आत्महत्या कर लेती हैं तो उसी समय जर्मनी सरकार से एक दंपत्ति अपनी बच्ची वापस लेने की गुहार लगा रहा है, जिसे जर्मनी की सरकार मातापिता से छीनकर फ़ॉस्टर केयर में दे दिया है। अभी हाल ही में रानी मुखर्जी की एक फिल्म भी ऐसी ही एक घटना पर आई थी। वह घटना वर्ष 2011 की थी और नोर्वे की थी। हालांकि नॉर्वे को लेकर अभी तक आरोप लगते हैं कि वह जरा सी बात पर ही बच्चों को अभिभावकों से छीन लेते हैं। यह भी कहा जाता है कि विदेशों में और विशेषकर पश्चिमी देशो में बसे हुए भारतीय इसे लेकर बहुत चिंतित रहते हैं कि कहीं किसी न किसी कारण उनका बच्चा उनसे न छिन जाए, क्योंकि हर देश में पालनपोषण के अपने नियम हैं और अपने सिद्धांत हैं। जो बातें भारतीय घरों में सामान्य हैं, वह बातें पश्चिमी देशों में गैर जिम्मेदाराना हरकतें मानी जा सकती हैं और उनके आधार पर बच्चा छीना जा सकता है।
पहले बात करते हैं प्रियदर्शिनी पाटिल की, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं और दुर्भाग्य से वह बहुत ही दुखी होकर इस दुनिया से विदा हुई हैं। यह पीड़ा मात्र यह नहीं थी कि उनके बच्चे उनके साथ नहीं थे, बल्कि यह पीड़ा वह लांछन और आरोप भी रहा होगा जिनमें यह तक कहा गया होगा कि वह अच्छी माँ नहीं हैं और घर पर बच्चे की देखभाल नहीं हो सकती है। प्रियदर्शिनी पाटिल के परिजनों ने बताया कि आईटी क्षेत्र में कार्य करने वाली प्रियदर्शिनी पाटिल और उनके पति अपने छोटे बेटे के उपचार से प्रसन्न नहीं थे। उसे अल्सरेटिव कोलाइटिस था, और जिसका उपचार एक निजी अस्पताल में छ महीने चला था। मगर जब उसकी देखभाल के बाद कोई सुधार नहीं हुआ, तो उन्होंने अपने बच्चे का इलाज कहीं और कराए जाने की मांग की। इसके बाद उनकी पीड़ा का दौर आरम्भ हुआ। उनका यह अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया और बाल संरक्षण का मामला आरम्भ हुआ। इसका तर्क यह दिया गया कि चूंकि घर पर देखभाल सही नहीं हो रही थी, अत: अमर्त्य ठीक नहीं हो पा रहा था। यही नहीं, उनका दूसरा बेटा जो 18 वर्ष से अधिक का है, उसे भी उनसे दूर कर दिया गया। अब जब इस मामले के नियम के चलते उनके घर सामाजिक कार्यकर्ता आए और छह ने सकारात्मक रिपोर्ट दी एवं एक ने नकारात्मक तो उसी रिपोर्ट के आधार पर उनके बच्चों को हिरासत में ले लिया गया और एक लम्बे संघर्ष के बाद भी उनके बच्चों को वापस नहीं किया गया।
वर्ष 2021 से आरम्भ हुआ उनका यह संघर्ष चलता रहा और जब प्रियदर्शिनी पाटिल को अपने बच्चों को वापस लाने में सफलता नहीं मिली तो उन्होंने भारत आकर आत्महत्या कर ली। उन्होंने अपने अंतिम पत्र में अपने कुछ पड़ोसियों और ऑस्ट्रेलिया के अधिकारियों को दोषी ठहराया है। उन्होंने विस्तार से लिखा है कि कैसे वह अपने बच्चों की कस्टडी के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे और कुछ अधिकारियों ने यह रिपोर्ट दी कि वह अपने बच्चों की देखभाल में सक्षम नहीं हैं और सरकार ने बच्चों की कस्टडी अपने पास रख ली।
उन्होंने ऑस्ट्रेलिया की सरकार से यह तक अनुरोध किया कि उनके बच्चों को उनके साथ भारत भेज दिया जाए, मगर यह भी अनुरोध अस्वीकृत हो गया और जब और कोई मार्ग नहीं बचा तो निराशा में आकर प्रियदर्शिनी पाटिल ने आत्महत्या कर ली।
यह घटना हृदय को व्यथित करने वाली है और ऐसे कई मामलों में कार्य करने वाले एक्टिविस्ट यह मांग उठाते हैं कि एक सिस्टम बनना चाहिए जिसमें ऐसे बच्चों के मामले हों, जिन्हें उनके अभिभावकों से अलग कर दिया गया है। इस मामले में बच्चों को वापस लाने का अभियान चलाने वाली कार्यकर्ता सुरन्या अय्यर ने एनडीटीवी से बात करते हुए कहा था कि भारत बच्चों के प्रति हो रहे अपराधों के प्रति सजग है और उनका यह भी कहना था कि यदि देश के मूल के आधार पर अपराधियों तक के विनिमय की अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली है, और निकृष्ट अपराधों के लिए कांसुलर की सुविधा है तो फिर ऐसे बच्चों को भारत क्यों नहीं आने दिया जाता, जिन मामलों में विदेशी सरकार यह सोचती है कि उनके अभिभावक सही देखभाल नहीं कर रहे हैं। प्रियदर्शिनी पाटिल जैसी ही लड़ाई धारा शाह अपनी बेटी अरिहा शाह के लिए लड़ रही हैं, जिन्हें जर्मनी सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया है और दो साल से बच्ची को वापस नहीं किया है। हालाँकि इसमें बच्ची की उम्र मात्र ढाई वर्ष है।
यह कहानी है अरिहा शाह की, जिसे चोट लगने पर उसके मातापिता डॉक्टर के पास दिखाने ले गए थे। मात्र सात माह की अरिहा को चोट लग गयी थी, हालांकि चोट प्राइवेट पार्ट पर लगी थी और उसके डाइपर पर खून था। डॉक्टर ने चाइल्ड केयर सर्विस वालों को बुला लिया और परिवार वालों पर ही बच्ची के उत्पीडन का आरोप लगा दिया। वर्ष 2021 की यह भी घटना है और बच्ची तब से जर्मनी के यूथ वेलफेयर ऑफिस (जुगेंडमट) की कस्टडी में फॉस्टर केयर में रह रही है
धारा शाह ने 15 अगस्त को अपनी बात रखने के लिए दिल्ली में धरना प्रदर्शन किया था। यह दो मामले हैं जो सामने आए थे, परन्तु सागरिका वाला मामला, जो नॉर्वे सरकार के विरुद्ध था जिसमें सांस्कृतिक आदतों को लेकर कैसे लापरवाही का विमर्श बना दिया जाता है, उसे हाल ही में रिलीज मिसेज चटर्जी वर्सेस नौर्वे में बहुत विस्तार से दिखाया गया है। यदि और भी अधिक नेट खंगालते हैं तो पाते हैं कि ऐसे मामलों के चलते भारतीय परिवार बहुत डर में रहते हैं कि कहीं कुछ ऐसा न हो जाए जिससे उनके बच्चे का पालनपोषण का अधिकार ही उनसे छीन लिया जाए। वहीं इन दोनों मामलों में सरकारी कदम की बात जाए तो ऑस्ट्रेलिया सरकार का कहना है कि उन्हें प्रियदर्शनी पाटिल की मृत्यु का दुःख है और वह मामले की जाँच करेगी तो वहीं अरिहा शाह के मामले में विदेश मंत्रालय लगातार जर्मनी के सम्पर्क में है।
लगातार आते यह मामले कानूनी से बढ़कर सामाजिक मामले हैं, जिनमें सुरक्षा, स्नेह एवं अभिभावकों के अधिकारों की पूर्व एवं पश्चिम की अवधारणाओं के मध्य हो रहा संघर्ष एवं भ्रम सम्मिलित है, जिसे सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाना चाहिए एवं हल किया जाना चाहिए। जैसा अरिहा की माँ धरा शाह का कहना है कि बेबी अरिहा के सांस्कृतिक अधिकारों को संरक्षित करने की आवश्यकता है!”