चीन के भारी विरोध के बाद भी ताइवान में वही पार्टी आई, जिसे वो लगातार अलगाववादी बता रहा था. अब लाई चिंग-ते की लीडरशिप में डीपीपी वहां का काम संभालेगी. चुनावी नतीजे सामने आते ही चीन की बौखलाहट साफ दिखने लगी. टॉप चीनी राजनयिक वांग यी ने कहा कि अगर ताइवान पर कोई भी आजादी के बारे में सोचता है तो इसका सीधा मतलब चीन के बंटवारे से है. इसपर उसे कठोर दंड दिया जाएगा. बीजिंग साथ ही ये कहना भी नहीं भूला कि चीन एक है, और ताइवान उसका हिस्सा है.
ताइवान दक्षिणी-पूर्वी चीन से करीब 100 मील दूर बसा द्वीप है. ये खुद को देश मानता है. उसके पास अपनी सरकार, संविधान और फ्लैग है. दूसरी ओर चीन का मानना है कि ताइवान उसका है. दोनों की भाषा और कल्चर काफी हद तक एक से हैं.
क्या ताइवान चीन का ही अंग था
चीन-ताइवान मामला काफी उलझा हुआ है. पहले ज्ञात ताइवानी ऑस्ट्रोनेशियन थे, जिनके बारे में माना जाता है कि वे चीन के दक्षिणी हिस्से से थे. 17वीं सदी में संक्षिप्त डच शासन के बाद इसपर चीन का शासन हो गया. साल 1895 में पहले चीन-जापान युद्ध में हार के बाद बीजिंग की क्विंग डायनेस्टी ने इसे जापान को दे दिया, जिसने करीब 5 दशक तक इसपर राज किया.
जापान से हार के बाद चीन में कई बदलाव हो रहे थे. हार चुके राजवंश को जड़ से उखाड़ फेंका गया. साल 1919 में वहां एक पार्टी बनी, जिसका नाम था कॉमिंगतांग पार्टी. इसका एकमात्र मकसद चीन को वापस जोड़ना था. हालांकि पार्टी के विरोध में कई गुट बनने लगे. और दूसरे विश्व युद्ध के कुछ ही समय बाद कॉमिंगतांग पार्टी को कम्युनिस्ट सरकार ने हरा दिया. यहीं से कुछ बदला. दूसरे वर्ल्ड वॉर में हार के बाद जापान ने ताइवानी सत्ता कॉमिंगतांग को सौंप दी थी. इधर कम्युनिस्ट पार्टी की दलील थी कि चूंकि चीन में वो भारी पड़ चुका है इसलिए ताइवानी सत्ता भी उसे मिले. इसके बाद से ही दोनों के बीच फसाद चला आ रहा है.
चीन ने अपनाए कई हथकंडे
बार-बार धमकाने के बाद भी सरेंडर न कर रहे ताइवान को चीन ने अबकी बार लालच दिया. उसने वन-कंट्री टू-सिस्टम के तहत प्रस्ताव रखा कि अगर ताइवान अपने को चीन का हिस्सा मान ले तो उसे स्वायत्ता मिल जाएगी. वो आराम से अपने व्यापार-व्यावसाय कर सकेगा, और चीन के साथ का फायदा भी मिलेगा. ताइवान से इससे इनकार कर दिया.
देशों पर मान्यता न देने का दबाव
गुस्साए हुए चीन ने हर उस देश पर दबाव बनाना शुरू किया, जो ताइवान को आजाद देश की तरह मानते थे. यहां तक कि कुछ ही सालों के दौरान उसने कथित तौर पर ताइवान का साथ देने वाले कई देशों को उससे दूर कर दिया. फिलहाल लगभग 13 देश हैं, जो ताइवान को मान्यता देते हैं. भारत इनमें शामिल नहीं क्योंकि वो कूटनीतिक तौर पर चीन से सीधी दुश्मनी नहीं लेना चाहता. ताइवान संयुक्त राष्ट्र संघ और यूएन से जुड़ी बहुत सी संस्थाओं का भी हिस्सा नहीं है.
इन्होंने दी है मान्यता
अमेरिकी डिपार्टमेंट ऑफ फॉरेन अफेयर्स एंड ट्रेड के मुताबिक, बेलीज, ग्वाटेमाला, हैती, होली सी, मार्शल आइलैंड्स, नाउरू, निकारागुआ, पलाऊ, पराग्वे, सेंट लूसिया, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट विंसेंट एंड द ग्रेनाडाइन्सल और तुवालु देश ताइवान को अलग मुल्क के तौर पर मान्यता देते हैं.
बीजिंग को क्यों चाहिए ताइवान अगर चीन ताइवान
पर कब्जा कर ले तो वेस्ट-प्रशांत महासागर में उसकी ताकत काफी बढ़ जाएगी. यहां से वो अमेरिकी आर्मी बेस पर भी नजर रख सकेगा, जिससे अभी उसका सीधा तनाव चल रहा है. ये चीन के लिए फायदेमंद है.
हाईटेक चिप का निर्माण भी
वहां दुनिया की सबसे एडवांस्ड सेमीकंडक्टर चिप बनती है, जो कि इतनी भारी मात्रा में बनती है कि आधी दुनिया की जरूरत पूरी कर रही है. इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, जैसे लैपटॉप, घड़ी, फोन में जो चिप लगते हैं, वे भी यहीं बनते हैं. अगर ताइवान पर चीन का सीधा कंट्रोल हो जाए तो उसके हाथ खजाना लग जाएगा. एक बड़े बिजनेस की डोर उसके हाथों में आ जाएगी. इसका असर उन सारे देशों पर होगा, जो ताइवान से चिप इंपोर्ट करते हैं.
नई सरकार के आने से क्या बदलेगा
चुनाव जीतने के बाद नए ताइवानी राष्ट्रपति लाई चिंग ते ने बहुत सोचते हुए चीन पर टिप्पणी की. उन्होंने कहा कि आपसी सम्मान के आधार पर ही चीन से बातचीत होगी. हालांकि प्रचार के दौरान वे इसपर खुलकर बोलते रहे थे. यहां तक कि उनकी पार्टी डीपीपी को बीजिंग ने अलगाववादी बताते हुए वोटरों से उससे बचने की सलाह दे डाली थी. अब ये भी हो सकता है कि दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ जाए.