नवोदित भारतीय गणतंत्र ने 1951-52 के चुनाव की अलग-अलग चुनौतियों को पार करते हुए और कई आलोचकों को गलत साबित करते हुए अभूतपूर्व लोकतांत्रिक प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरी की थी, जब देश के बंटवारे के जख्म भरे नहीं थे और उस समय बड़ी संख्या में मतदाता निरक्षर थे। आजादी के बाद भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने लोकसभा की 489 सीट के लिए जब देश का पहला संसदीय चुनाव कराया था, उस समय आयोग बने बमुश्किल एक ही साल हुआ था।
पहले लोकसभा चुनाव में 17 करोड़ 30 लाख मतदाताओं ने 1,874 उम्मीदवारों में से अपने प्रतिनिधियों का चयन किया था। इस साल लोकसभा के 18वें आम चुनावों की तैयारी में लगे निर्वाचन आयोग पर 1950 के दशक में जनसांख्यिकीय, भौगोलिक और साजो सामान संबंधी चुनौतियों का सामना करते हुए चुनाव कराने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी।
भारत के लोकसभा चुनाव को दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव माना जाता है. इसमें लाखों की संख्या में कर्मचारी काम करते हैं और करोड़ों मतदाता मतदान करते हैं.
भारत में लोकसभा के चुनाव साल 1951 से कराए जा रहे हैं. अब तक लोकसभा के 17 चुनाव हो चुके हैं. भारत का निर्वाचन आयोग इन चुनावों को संपन्न करवाता है.
आइए जानते हैं लोकसभा, लोकसभा चुनाव, लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव और भारत निर्वाचन आयोग के बारे में.
संविधान के मुताबिक़ लोकसभा में सदस्यों की संख्या राज्यों के क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्यइक्ष चुनाव द्वारा चुने गए पाँच सौ तीस से अधिक नहीं होनी चाहिए. केंद्र शासित क्षेत्रों से चुने गए सदस्यों की संख्या 20 से अधिक नहीं होनी चाहिए.
लोकसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को देखते हुए राष्ट्र पति इस समुदाय के दो सदस्यों को मनोनीत करते थे.
नरेंद्र मोदी सरकार ने कानून संशोधन कर इस व्यवस्था को बंद कर दिया.
2019 में हुए सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में 543 सदस्य चुने गए थे.
कब हुआ था पहली लोकसभा का चुनाव?
पहली लोकसभा के चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच कराए गए थे. उस समय लोकसभा में कुल 489 सीटें थीं लेकिन संसदीय क्षेत्रों की संख्या 401 थी.
लोकसभा की 314 संसदीय सीटें ऐसी थीं जहां से सिर्फ़ एक-एक प्रतिनिधि चुने जाने थे.
वहीं 86 संसदीय सीटें ऐसी थी जिनमें दो-दो लोगों को सांसद चुना जाना था. वहीं नॉर्थ बंगाल संसदीय क्षेत्र से तीन सांसद चुने गए थे.
किसी संसदीय क्षेत्र में एक से अधिक सदस्य चुनने की यह व्यवस्था 1957 तक जारी रही.
लोकसभा की बेवसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक पहली लोकसभा 17 अप्रैल,1952 को अस्तित्व में आई थी. इसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को आयोजित की गई थी.
गणेश वासुदेव मावलंकर पहली लोकसभा के अध्यक्ष थे. वो 15 मई,1952 से 27 फरवरी,1956 तक इस पद पर रहे.
पहली लोकसभा के उपाध्यक्ष एम अनंतशयनम अय्यंगर थे. उनका कार्यकाल 30 मई,1952 से सात मार्च, 1956 तक था.
85 फीसदी अशिक्षित आबादी
उस समय वोट देने की उम्र 21 साल थी. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जिस समय देश में पहली लोकसभा के चुनाव हुए, उस समय 85 फीसदी जनता लिख-पढ़ नहीं सकतर थी. पहले चुनाव में करीब 17.3 करोड़ मतदाता थे. मतदान 45% था. 489 सीटों पर 53 राजनीतिक दलों ने अपनी किस्ममत आजमाई थी.
कांग्रेस की एकतरफा जीत
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने इन चुनावों में एकतरफा जीत हासिल की। फूलपुर लोकसभा सीट से जवाहर लाल नेहरू ने विशाल अंतर से जीत हासिल की। साधारण बहुमत के लिए 245 सीटों की जरूरत थी, लेकिन कांग्रेस ने कुल 489 सीटों में से 364 पर अपना परचम लहराया। दूसरे नंबर पर सीपीआई रही, जिसके खाते में 16 सीटें आईं। 12 सीटों के साथ सोशलिस्ट पार्टी तीसरे स्थान पर रही।
किसान मजदूर प्रजा पार्टी ने 9, हिंदू महासभा ने 4 और भारतीय जनसंघ व रिवलूशनरी सोशलिस्ट पार्टी को 3-3 सीटों पर जीत हासिल हुई। पहले आम चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर करीब 45 प्रतिशत रहा। कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा वोट शेयर निर्दलियों का रहा, जिन्हें कुल 16 प्रतिशत वोट मिले। सोशलिस्ट पार्टी को 10.59, सीपीआई को 3.29 और भारतीय जन संघ को 3.06 प्रतिशत वोट मिले। चुनाव बाद जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनी।
कई दिग्गज हार गए चुनाव
देश के पहले ही आम चुनाव में कई दिग्गजों को हार का मुंह देखना पड़ा। देश के पहले कानून मंत्री डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को बॉम्बे (नॉर्थ सेन्ट्रल) सीट पर कभी अपने ही सहयोगी रहे एन. एस. कर्जोलकर के हाथों शिकस्त झेलनी पड़ी। आंबेडकर के अलावा किसान मजदूर प्रजा पार्टी के कद्दावर नेता आचार्य कृपलानी भी चुनाव हार गए।
आंबेडकर ने कांग्रेस छोड़कर शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का गठन किया था और बॉम्बे (नॉर्थ सेन्ट्रल) की सुरक्षित सीट से ताल ठोका था। उन्हें 1,23,576 वोट मिले और कांग्रेस के कजरोलकर ने 1,38,137 वोट हासिल कर जीत हासिल की। उसके बाद आंबेडकर राज्यसभा के जरिए संसद में पहुंचे। 1954 में जब भंडारा लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए तो आंबेडकर ने यहां भी ताल ठोका लेकिन एक बार फिर उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार से शिकस्त झेलनी पड़ी।
पहले चुनाव में जीते 3 नेता बाद में प्रधानमंत्री बने
देश के पहले आम चुनाव के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। उनके अलावा 2 ऐसे नेता भी चुनाव जीते जो आगे चलकर भारत के प्रधानमंत्री बने, ये थे- गुलजारी लाल नंदा और लाल बहादुर शास्त्री।
तब नहीं था विपक्ष का कोई नेता
उस समय सदन में विपक्ष का कोई औपचारिक नेता नहीं था, इस पद को मान्यता 1969 में मिली. लोकसभा के पहले अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर थे. वह फरवरी 1956 तक अध्यक्ष रहे. पहले उपाध्यक्ष एमए अय्यंगार थे और महासचिव एमएन कौल थे. पहली लोकसभा ने अपना पूरा कार्यकाल पांच सालों में पूरा कर लिया. इसके बाद से चार अप्रैल 1957 को भंग कर दिया गया था.
मतदाताओं को जागरुक करना बड़ी चुनौती
वोट कैसे डालना है और कहां पर डालना है। इसका समाधान करने के लिए चुनाव आयोग ने एक तरकीब सोची थी। चुनावी प्रक्रिया को लेकर एक फिल्म बनाई गई और इसे तीन हजार से ज्यादा सिनेमाघरों में मुफ्त दिखाया जाता था। इसके साथ ही ऑल इंडिया रेडियो पर भी बहुत सारे कार्यक्रम आयोजित किए गए। जिसमें लोगों को चुनाव प्रक्रिया के बारे में चुनाव के बारे में बताया जाता था। अखबारों में भी लेख ओर विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का काम किया गया। इस चुनाव में स्टील के कुल मिलाकर 25 लाख बैलेट बॉक्स इस्तेमाल किए गए थे। उस वक्त हर पार्टी का अलग बैलेट बॉक्स होता था। इस चुनाव में 180 टन पेपर का इस्तेमाल हुआ जिसपर उस जमाने में 10 लाख रूपये खर्च हुए थे।
फर्जी वोटिंग रोकने की चुनौती
भारतीय निर्वाचन आयोग के सामने सबसे पहली चुनौती मतपेटियों की लूट को रोकना और फर्जी मतदान होने से बचाना था। एक ही आदमी बार-बार वोट न दे सके, इसके लिए न छूटने वाली स्याही का उपयोग किया गया। राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला की मदद से विकसित इस अमिट स्याही का उपयोग पहली बार 1962 के चुनावों में किया गया था और यह अभी भी वोटर्स के वोट डालने का प्रमाण बनी हुई है।
धीरे-धीरे बदली चुनावी प्रक्रिया
पहले लोकसभा चुनाव में हर एक उम्मीदवार को मतदान केंद्र पर अपने नाम और चुनाव चिह्न के साथ एक अलग रंगीन मतपेटी दी गई थी। इसका एक मात्र मकसद यह था कि अनपढ़ लोग भी अपनी पंसद के उम्मीदवार को आसानी से वोट दे सकें। देश का पहला लोकसभा चुनाव 68 चरणों में समाप्त हुआ था और साल 2019 में हुआ लोकसभा चुनाव सात चरणों और 50 दिन के अंदर ही समाप्त हो गया। चुनाव आयोग ने चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता को बढ़ाते हुए काफी विकास किया है।
बैलेट से ईवीएम तक कब पहुंचे
चुनावी प्रक्रिया में सबसे अहम बदलाव 1990 के आखिरी दशक में देखने को मिला। इसमें ही इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की शुरुआत की गई थी। उससे पहले बैलेट पेपर से वोटिंग के समय काफी फर्जी मतदान होने लगा था। मतपेटियों की लूट से लेकर बूथ कैप्चरिंग के जरिए ठप्पामार वोटिंग तक, हर बार चुनावों में चुनावी प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने वाली खबरें सामने आने लगी थी। साल 2004 में पहली बार ईवीएम ने बैलेट पेपर की पूरी तरह से जगह ले ली थी। उसी साल लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में पूरी तरह ईवीएम मशीन के जरिये वोट डाले गए और लोगों ने अपने-अपने उम्मीदवारों को चुना।
ईवीएम के साथ-साथ वोटर-वेरिफाइड पेपर ऑडिट (VVPAT) का साधन भी आया। वीवीपैट से मतदाता को पता चल जाता है कि उसने किस उम्मीदवार को वोट दिया है। इससे ईवीएम हैंकिंग जैसी खबरों पर विराम लगता है। हालांकि, चुनाव आयोग वर्तमान समय में भी चुनावी प्रक्रिया में सुधार के लिए कई कदम उठा रहा है।
दुनिया में सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस वाई कुरैशी ने कहा कि 1951-52 का पहला आम चुनाव उस समय भी दुनिया में हुई सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया” थी। उन्होंने पीटीआई-भाषा’ से कहा, “सुकुमार सेन (भारत के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त) को सलाम है जिन्होंने पहला आम चुनाव कराया और बेहतरीन प्रदर्शन किया। इतनी व्यापक प्रक्रिया को किसी पूर्व अनुभव के बिना सम्पन्न किया गया जिसके लिए पहले से कोई बुनियादी ढांचा उपलब्ध नहीं था।”
4 महीने चली पहले चुनाव की प्रक्रिया
कुरैशी ने कहा कि भारत ने वास्तव में “एक बेहतरीन प्रयोग किया था जैसा कि उस समय फिल्म प्रभाग द्वारा चुनाव पर निर्मित एक लघु वीडियो में दिखाया गया था। इस वीडियो में यह भी उल्लेख किया गया था कि चुनाव की वास्तविक प्रक्रिया से पहले माँक’ (अभ्यास) चुनाव कराए गए थे। आयोग द्वारा प्रकाशित ‘जनरल इलेक्शंस 2019: एन एटलस के अनुसार, पहले चुनाव की प्रक्रिया 25 अक्टूबर, 1951 को शुरू हुई और यह चार महीने तक चली। इस दौरान 17 दिन मतदान हुआ था।
अजनबियों को नाम नहीं बताती थी महिलाएं
यह प्रक्रिया शुरू करने से पहले मतदाता सूची तैयार करते समय आयोग ने पाया कि कुछ राज्यों में बड़ी संख्या में महिला मतदाताओं का पंजीकरण “उनके अपने नाम से नहीं बल्कि उनके परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ उनके संबंधों के विवरण के आधार पर किया गया था, जैसे अमुक व्यक्ति की मां या पत्नी आदि। स्थानीय प्रचलन के अनुसार, इन इलाकों में महिलाएं अजनबियों को अपना नाम बताने से कतराती थीं।
20 से 80 लाख महिलाओं ने नहीं दी जानकारी
पहले आम चुनावों पर 1955 में प्रकाशित आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, उस समय निर्देश जारी किए गए थे कि मतदाता का नाम उसकी पहचान का एक अनिवार्य हिस्सा है इसलिए इसे मतदाता सूची में शामिल किया जाना चाहिए। उस समय लोगों में जागरूकता बढ़ाई गई और मतदाताओं का असल नाम जोड़ने के लिए चुनाव कराने की अवधि को विशेष रूप से बढ़ाया गया।
रिपोर्ट में कहा गया, “देश में कुल लगभग आठ करोड़ महिला मतदाताओं में से लगभग 20 से 80 लाख महिलाओं ने अपने असल नाम की जानकारी नहीं दी जिसके कारण उनसे संबंधित प्रविष्टियों को मतदाता सूची से हटाना पड़ा। ऐसे सभी मामले बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, राजस्थान और विंध्य प्रदेश राज्यों में सामने आए थे।”
1,96,084 मतदान केंद्र
दिल्ली के पूर्व मुख्य निर्वाचन अधिकारी (सीईओ) चंद्र भूषण कुमार ने कहा कि उस समय महिला मतदाताओं से मतदाता सूची में अपना नाम घोषित करने के लिए कहना आयोग का एक “बहुत ही उल्लेखनीय रुख” था। कुमार ने कहा कि उस दौरान तय की गई बहुत सी चीजें “हमारी पूरी चुनावी प्रक्रिया का अभिन्न अंग” बन गई हैं, चाहे यह चुनाव चिह्न हों या अमिट स्याही का इस्तेमाल हो। पूरे देश में 1,96,084 मतदान केंद्र स्थापित किए गए थे। मतदान की प्रक्रिया बर्फबारी के मौसम से पहले हिमाचल प्रदेश से शुरू की गई थी।
रिपोर्ट में कहा गया कि आयोग को इस राष्ट्रव्यापी प्रक्रिया के दौरान उन दुर्गम इलाकों तक पहुंचने की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा, जहां विशाल रेगिस्तानी क्षेत्र थे, जहां सड़कें नहीं थीं और संचार सुविधाओं का अभाव था और जोधपुर एवं जैसलमेर जैसे इलाकों में बड़ी संख्या में ऊंटों का इस्तेमाल किया गया था। जहां भी सार्वजनिक भवन अपर्याप्त थे, वहां मतदान के लिए डाक बंगलों और निजी भवनों का भी उपयोग किया गया था।
कुरैशी ने कहा कि मुख्य रूप से पश्चिमी देशों के आलोचकों समेत कई ऐसे कई लोग थे, जिन्हें लगा था कि पहला चुनाव कराना असफल प्रयोग साबित होगा। उन्होंने कहा, “उस समय भारत में लगभग 84 प्रतिशत लोग निरक्षर थे। आलोचकों का कहना था कि निरक्षर लोग लोकतंत्र की प्रक्रिया में कैसे भाग ले सकते हैं और उनका मानना था कि हम असफल रहेंगे। निरक्षरता के अलावा, गरीबी, सामाजिक विभाजन और बंटवारे के बाद सांप्रदायिक विभाजन की भी दिक्कत थी लेकिन हमने पहले ही चुनाव में हमारे असफल रहने की आशंकाओं को गलत साबित कर दिया।”
लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव कैसे होता है?
लोकसभा अध्यक्ष पद का संसदीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान है. लोकसभा अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधित्व करते हैं. वहीं संसद के सदस्य अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. अध्यक्ष के चुनाव के लिए कोई विशेष योग्यता निर्धारित नहीं है लेकिन उनका लोकसभा का सदस्य होना अनिवार्य है.
सामान्य तौर पर सत्तारूढ़ दल के सदस्य को ही लोकसभा का अध्यक्ष चुना जाता है. एक संसदीय परंपरा यह है कि सत्तारूढ़ दल अन्य दलों और समूहों से विचार-विमर्श कर अपना उम्मीदवार घोषित करता है. उम्मीदवार का चयन हो जाने के बाद प्रधानमंत्री और संसदीय कार्य मंत्री उसके नाम का प्रस्ताव करते हैं.
यदि एक से अधिक प्रस्ताव आते हैं तो उनको क्रमबद्ध रूप से दर्ज किया जाता है और अगर ज़रूरत पड़ती है तो मतदान कराया जाता है. जब एक नाम पर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो अन्य प्रस्तावों को पेश नहीं किया जाता है. अगर लोकसभा नवगठित होती है तो प्रोटेम स्पीकर उस बैठक की अध्यक्षता करते हैं जिसमें अध्यक्ष का चुनाव होता है. लेकिन लोकसभा का कार्यकाल जारी है और इस दौरान चुनाव होता है तो उपाध्यक्ष बैठक की अध्यक्षता करते हैं. परिणाम घोषित किए जाने के बाद नवनिर्वाचित अध्यक्ष को प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष अध्यक्ष के आसन तक ले जाते हैं.
इसके बाद सभी राजनीतिक दलों और समूहों के नेता अध्यक्ष को बधाई देते हैं. अध्यक्ष धन्यवाद भाषण देते हैं. इसके बाद नया अध्यक्ष अपना कार्यभार ग्रहण करता है. अध्यक्ष का कार्यकाल उनके चुनाव की तारीख से लेकर जिस लोकसभा में उसका निर्वाचन किया गया हो, उसके भंग होने के बाद नई लोकसभा की प्रथम बैठक के ठीक पहले तक होता है. अध्यक्ष किसी भी समय उपाध्यक्ष को लिखित सूचना देकर त्याग-पत्र दे सकता है. अध्यक्ष को उसके पद से लोकसभा में उपस्थित सदस्यों द्वारा बहुमत से पारित संकल्प द्वारा ही हटाया जा सकता है.
राज्यसभा का चुनाव कैसे होता है?
राज्यों की परिषद या राज्य सभा संसद का ऊपरी सदन है. राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि और भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्य शामिल होते हैं.
उपराष्ट्रपति राज्य सभा का सभापति होता है. राज्य सभा अपने सदस्यों में से एक उपसभापति भी चुनती है. सभापति और उपसभापति राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता करते हैं.
संविधान के अनुच्छेद 80 के ज़रिए राज्य सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है. राष्ट्रपति 12 लोगों को राज्य सभा का सदस्य मनोनीत करते हैं. ये सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र से चुने जाते हैं. राज्य सभा के 238 सदस्य राज्यों और तीन सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं.
भारत के निर्वाचन आयोग की स्थापना कब हुई थी?
भारत के निर्वाचन आयोग की स्थापना संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत की गई है.
अनुच्छे द-324 निर्वाचन आयोग को मतदाता सूची के रख-रखाव और स्वरतंत्र व निष्प5क्ष रूप से चुनाव के संचालन की शक्तियां देता है.
इसकी स्थापना 25 जनवरी,1950 को की गई थी. सुकुमार सेन को देश का पहला मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया था. उनका कार्यकाल 21 मार्च 1950 से 19 दिसंबर 1958 तक रहा.
चुनाव आयोग में पहले केवल मुख्य चुनाव आयुक्त ही होता था. लेकिन 16 अक्टूबर 1989 से 1 जनवरी 1990 तक इसमें तीन आयुक्त नियुक्त किए गए.
इसके बाद 1 अक्टूबर 1993 से तीन आयुक्तों की नियुक्ति की व्यवस्था को नियमित कर दिया गया.
यह व्यवस्था आज भी जारी है. इनमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त होते हैं. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं.
चुनाव आयोग राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, संसद के दोनों सदनों (राज्य सभा और लोकसभा), राज्यों की विधानसभाओं और विधान परिषदों का चुनाव कराता है.