कर्नाटक में कॉन्ग्रेस की जीत के बाद वक्फ बोर्ड की बयानबाजी तेज हो गई है। राज्य में वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष शफी सादी ने जहाँ इस जीत के बाद कहा कि अब नई सरकार में मुस्लिम समुदाय का उप-मुख्यमंत्री बनना चाहिए और 5 मुस्लिम विधायकों को खास विभाग दिया जाना चाहिए। वहीं गुलबर्गा के वक्फ जिला अध्यक्ष सैयद हबीब सरमस्त का एक बयान वायरल हुआ कि मुसलमानों को किसी रिजर्वेशन की जरूरत नहीं है। उनके पास गुलबर्गा में ही 27000 एकड़ से ज्यादा वक्फ की जमीन है। अगर मुसलमान वक्फ को सही से संभालते हैं तो उनके पास इतना है कि वो हुकूमत को कर्जा दे सकते हैं।
अब ये वक्फ बोर्ड है क्या चीज? जिसके बूते इतने बड़े दावे हो रहे हैं। इसका काम क्या है? जो इसके सदस्य राज्य में जीतने वाली कॉन्ग्रेस को कह रहे हैं कि सरकार में उनके समुदाय के डिप्टी सीएम चुने जाएँ। इनके पास कितनी संपत्ति है? जो हुकूमत को कर्जा देने की बात खुलेआम कर रहे हैं। आइए इस वक्फ बोर्ड के बारे में सारी जानकारी लेते हैं और बताते हैं कि कैसे लोकतांत्रिक देश में मजहब के नाम पर शुरू संस्था का प्रभाव इतना बढ़ चुका है कि वो धीरे-धीरे देश के तीसरे सबसे बड़े जमींदार बन गए हैं।
वक्फ बोर्ड वो संस्था है जो अल्लाह के नाम पर दान में दी गई संपत्ति का रख-रखाव करता है। जैसे इस्लाम मजहब मानने वाले जब अपनी किसी चल या अचल संपत्ति को जकात में देते हैं तो वो संपत्ति तभी से ‘वक्फ’ कहलाती है। जकात दिए जाने के बाद इस संपत्ति पर किसी का मालिकाना अधिकार नहीं होता। उसे अल्लाह की संपत्ति माना जाता है और उसकी देख-रेख ‘वक्फ-बोर्ड’ को दी जाती है। ये संस्थान उस संपत्ति से जुड़े सारे कानूनी काम को संभालती है जैसे उसे बेचने-खरीदना-किराए पर देना आदि। एक बार यदि कोई व्यक्ति ये वक्फ दे देता है तो फिर उसके बाद उसका उस संपत्ति को कभी वापस नहीं ले सकता। वक्फ बोर्ड उसे जैसे चाहे वैसे इस्तेमाल करता है।
आजादी के बाद भारत में वक्फ एक्ट 1954 नेहरू सरकार लेकर आई थी। साल 1995 में एक्ट कुछ संशोधन हुए। इन संशोधनों के बाद प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में वक्फ बोर्डों के गठन की अनुमति दी गई और कुछ ऐसे बदलाव हुए जिनपर अक्सर विवाद होता रहता है।
सेंट्रल वक्फ काउंसिल ऑफ इंडिया एक वैधानिक निकाय है। इसकी स्थापना 1964 में भारत सरकार द्वारा 1954 के इस वक्फ अधिनियम के तहत की गई थी। यह केंद्रीय निकाय वक्फ अधिनियम, 1954 की धारा 9 (1) के प्रावधानों के तहत स्थापित विभिन्न राज्य वक्फ बोर्डों के तहत काम की देखरेख करता है।
देश में एक सेंट्रल वक्फ काउंसिल और 32 स्टेट बोर्ड है। हर राज्य के अलग-अलग वक्फ बोर्ड होते हैं। जबकि केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री सेंट्रल वक्फ काउंसिल का पदेन अध्यक्ष होता है।
बात करें वक्फ बोर्ड के सदस्यों की तो इसमें शीर्ष पर सारे मुस्लिम अधिकारी होते हैं। जैसे एक अध्यक्ष, राज्य सरकार की ओर से एक या दो नामित व्यक्ति, मुस्लिम विधायक, मुस्लिम एमपी, मुस्लिम वकील, मुस्लिम आईएएस, इस्लामी स्कॉलर, टाउन प्लॉनर और इनके अलावा एक लोकल लेवल पर मुतवल्ली भी होता है।
पिछले दिनों खबरें आई थीं कि वक्फ बोर्ड रेल और सेना के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा जमींदार बनता जा रहा है। अल्पसंख्यक मंत्रालय के अनुसार वक्फ बोर्ड के पास पूरे देश भर में 8,65,646 संपत्तियाँ पंजीकृत हैं। इनमें से 80 हजार से ज्यादा संपत्ति वक्फ के पास केवल बंगाल में हैं। इसके बाद पंजाब में वक्फ बोर्ड के पास 70,994, तमिलनाडु में 65,945 और कर्नाटक में 61,195 संपत्तियाँ हैं। देश के अन्य राज्यों में भी इस संस्थान के पास बड़ी संख्या में संपत्तियाँ हैं।
वक्फ के नाम पर वक्फ बोर्ड में जोड़ी गई इतनी संपत्तियाँ पर पिछले दिनों बहुत सवाल उठे। यूपी जैसे राज्यों में तो वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर जाँच के लिए राज्य सरकार जाँच के आदेश भी दे चुकी है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में पिछले साल वक्फ बोर्ड को अंसवैधानिक करार देने के लिए एक याचिका डाली गई थी। हालाँकि कोर्ट ने याचिका ये कहकर खारिज कर दी कि इस मामले में याचिकाकर्ता व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं हुए।
याचिका डालने वाले अश्विनी उपाध्याय इसकी संवैधानिक मान्यताओं पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, “वक्फ के नाम से भारतीय संविधान में एक शब्द नहीं है। सरकार ने 1995 में वक्फ एक्ट बनाया और ये सिर्फ मुस्लिमों के लिए बना दिया।” उन्होंने पूछा कि जब संविधान में ही ऐसा शब्द नहीं था तो ये वक्फ एक्ट बना कैसे। इसमें मुस्लिम विधायक, एमपी, वकील, आईएएस, स्कॉलर और टाउन प्लॉनर और एक मुतवल्ली होता है। मगर जो इसका पूरा खर्चा होता है वो पूरा का पूरा जनता के टैक्स से दिया जाता है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब सरकार मस्जिद, मजारों से पैसे ही नहीं लेते और वक्फ पर उसके सदस्यों के वेतन में पैसे खर्च करेंगे तो ये आर्टिकल 27 का उल्लंघन नहीं हुआ?
उन्होंने यह भी कहा कि वक्फ बोर्ड 1995 के जरिए वक्फ बोर्ड को असीमित शक्तियाँ दे दी गईं। उन्हें ये अधिकार दे दिया गया है कि उनके सब धार्मिक संपत्तियों से जुड़े मामले ट्रिब्यूनल कोर्ट में जाएँगे। वो सवाल करते हैं कि देश में इतनी ट्रिब्यूनल कोर्ट नहीं है ऐसे में अगर वक्फ जाकर किसी की संपत्ति पर दावा ठोंकता है तो लोगों को दर-दर भटकना पड़ता है तब सुनवाई होती है जबकि बाकी धर्मों के मामले आराम से सिविल कोर्ट में सुन लिए जाते हैं।
सुप्रीम में भले ही वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका खारिज कर दी गई। लेकिन उठाए सवाल गलत नहीं थे। भारत जैसे लोकतांत्रित देश में मजहबी आधार पर ऐसे बोर्ड और कानून बनाना कहाँ तक उचित है। पिछले ही दिनों ये खबर आई कि एक पूरे गाँव पर वक्फ बोर्ड ने अपना अधिकार बता दिया है जबकि लोग उस पर सालों से रह रहे हैं और जमीन पर मंदिर भी है।
ये भेदभाव नहीं तो क्या है कि किसी भी अन्य धर्म की संपत्ति से जुड़े मामलों पर सिविल कोर्ट सुनवाई कर लेता है जबकि अगर किसी वक्फ की संपत्ति का विवाद है हो तो वो केवल ट्रिब्यूनल कोर्ट में सुनी जाती है। यानी अगर वक्फ कभी कहता है कि किसी गैर इस्लामी शख्स की जमीन भी उसके हिस्से में आती है तो उस व्यक्ति को ट्रिब्यूनल कोर्ट जाकर शिकायत करनी पड़ती है और देश में इन कोर्टों की संख्या मात्र 14 है। वहीं अगर यही विवाद किसी अन्य धर्म के व्यक्ति से जुड़ा है तो बड़े आराम से मामला सिविल कोर्ट में सुना जाता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि वक्फ का कॉन्सेप्ट इस्लामी देशों तक में नहीं है। फिर वो चाहे तुर्की, लिबिया, सीरिया या इराक हो। लेकिन भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते आज हालात ऐसे हैं कि इन्हें देश में तीसरा सबसे बड़ा जमींदार बताया जा रहा है। इनके पास अकूत संपत्ति है।