केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने आरोग्य मैत्री प्रोजेक्ट के तहत पहले पोर्टेबल अस्पताल को तैयार किया गया है ताकि किसी भी आपदा की स्थिति में पीड़ितों का तुरंत इलाज शुरू हो सके। स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि अगले दो से तीन महीनों में देश के अलग- अलग हिस्सों में स्थित AIIMS (ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस) समेत सभी बड़े मेडिकल संस्थानों में पोर्टेबल अस्पताल होंगे। प्रोजेक्ट भीष्म (सहयोग, हित और मैत्री के लिए भारत की स्वास्थ्य पहल) के साथ स्वदेशी रूप से इसे डिज़ाइन किया गया है। प्राकृतिक आपदाओं समेत किसी भी संकट की स्थिति में 200 पीड़ितों का इलाज किया जा सकता है। 72 क्यूब को जोड़कर एक पोर्टेबल अस्पताल तैयार किया जाता है, इसे हवाई, जल या फिर सड़क किसी भी मार्ग से ले जा सकते हैं। पहाड़ी इलाकों, दूर- दराज के इलाकों, नॉर्थ ईस्ट समेत ऐसे क्षेत्रों में अगर कोई आपदा आती है तो इन पोर्टेबल अस्पतालों को एम्स व दूसरे संस्थानों से तुरंत उन जगहों पर भेजा जाएगा और पीड़ितों का इलाज शुरू होगा। इस अस्पताल में बुलेट इंजरी, स्पाइनल, चेस्ट, इंजरी के साथ ही बर्न और स्नेक बाइट के मरीजों का भी इलाज हो सकता है।
वर्ल्ड हेल्थ असेंबली में दिखाया जाएगा मॉडल
देश में पिछले दस वर्षों में एम्स की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। हाल ही में एम्स राजकोट, एम्स बठिंडा, पश्चिम बंगाल में एम्स कल्याणी, आंध्र प्रदेश में एम्स मंगलागिरी और एम्स रायबरेली देशवासियों को समर्पित किया गया है। वहीं एम्स रायबरेली, एम्स बठिंडा भी तैयार हो चुके हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि जिनीवा में 27 मई से शुरू होने वाली वर्ल्ड हेल्थ असेंबली (WHA) में भी भारत द्वारा तैयार किए गए पोर्टेबल अस्पताल के मॉडल को दिखाया जाएगा। इससे जुड़ी वीडियो को एक सेशन में दिखाया जाएगा और अलग- अलग देशों को बताया जाएगा कि भारत ने आपात स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर कैसे नए प्रयोग किए हैं। विभिन्न देशों को बताया जाएगा कि भारत ने सबसे कम दामों में, सबसे उपयुक्त आपातकालीन मेडिकल रिस्पांस सिस्टम-BHISHM तैयार कर लिया है। इससे दूसरे देश भी अपने यहां इस मॉडल को लागू कर सकते हैं। इस क्यूब अस्पताल में वेंटिलेटर, एक्सरे और अल्ट्रासाउंड सहित सभी आवश्यक उपकरण शामिल हैं।
कोवैक्सिन के साइड इफेक्ट्स वाली स्टडी का मॉडल केवल फोन पर आधारित
स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि कोवैक्सिन के साइड इफेक्ट्स को लेकर की गई स्टडी केवल टेलिफोन पर की गई बातचीत पर आधारित थी और कोई साइंटिफिक आधार नहीं था। ऐसे में इस स्टडी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। सूत्रों का कहना है कि किसी भी रिसर्च करने का एक तरीका होता है लेकिन इस रिसर्च की कार्यप्रणाली का कोई आधार ही नहीं था। बस लोगों से फोन किया गया और उसके आधार पर ही रिपोर्ट तय कर दी गई। इलाज के डॉक्युमेंट्स भी नहीं देखे गए। बीएचयू के रिसचर्स ने यह स्टडी की थी और एक विदेशी जर्नल में यह स्टडी (रिसर्च पेपर) प्रकाशित हुआ था। जिसके बाद आईसीएमआर ने इस स्टडी को भ्रामक और गलत तथ्यों पर आधारित बताया था। दरअसल बीएचयू के रिसचर्स द्वारा जनवरी 2022 से अगस्त 2023 के बीच की गई इस स्टडी में दावा किया गया था कि 926 प्रतिभागियों में से लगभग 50 प्रतिशत ने संक्रमण की शिकायत की थी और स्ट्रोक और गुइलिन-बैरे सिंड्रोम के दुर्लभ जोखिम को बढ़ाया है। इस मुद्दे पर ICMR के डायरेक्टर जनरल ने बीएचयू में यह रिसर्च करने वाले लेखकों और न्यूजीलैंड स्थित ड्रग सेफ्टी जर्नल के संपादक को पत्र लिखा था। सूत्रों का कहना है कि इस मुद्दे पर रिसर्च करने वालों ने आईसीएमआर को जवाब भेजा है और सूत्रों का दावा है कि उन्होंने माफी भी मांगी है।