दुनियाभर में बाघों के संरक्षण और प्रबंधन को संवर्धित करने के समन्वित प्रयासों के तहत टाइगर रेंज वाले सभी देशों को एक साथ लाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 29 जुलाई को ‘अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस’ मनाया जाता है। यह समूचे विश्व में बाघों की घटती संख्या पर चिंता व्यक्त करने के साथ उनके संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाने का एक महत्वपूर्ण अवसर भी है, जो लोगों को यह भी स्मरण कराता है कि बाघ पृथ्वी का केवल एक शक्तिशाली और खूबसूरत प्राणी ही नहीं है बल्कि हमारे पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। 1970 के दशक में बाघों के संरक्षण के लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रयास किया गया था, जिसकी परिणति 1973 में ‘साइट्स’ (लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अभिसमय) संधि पर हस्ताक्षर के रूप में हुई थी।
अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस की शुरुआत 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग बाघ शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी, जो एक ऐसा वैश्विक सम्मेलन था, जिसका उद्देश्य दुनियाभर में जंगली बाघों की आबादी में हो रही खतरनाक गिरावट को संबोधित करना और उनके संरक्षण के लिए रणनीति विकसित करना था। रूस में आयोजित हुए उस टाइगर समिट में बाघ रेंज के देशों ने बाघ संरक्षण पर चर्चा की थी और उसी सम्मेलन में हर साल 29 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था। उस अवसर पर भारत, बांग्लादेश, भूटान, कंबोडिया, चीन, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, नेपाल, रूस, थाईलैंड और वियतनाम, बाघ क्षेत्र के कुल 13 देश एक साथ मिलकर 2022 तक जंगली बाघों की संख्या को दोगुना करने के लक्ष्य के साथ सामने आए थे। हालांकि भारत को छोड़कर अन्य देश इसमें इतने सफल नहीं हुए हैं। पूरे विश्व में भारत ही आज सबसे बड़ा टाइगर रेंज वाला देश है।
2024 में अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस का विषय बाघों के संरक्षण और उनके समक्ष उपस्थित आवास की हानि, अवैध शिकार और मानव-वन्यजीव संघर्ष जैसे तात्कालिक खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। इस वर्ष वन्यजीव अपराध से निपटने, संरक्षित क्षेत्रों का विस्तार करने, स्थानीय समुदायों के लिए स्थायी आजीविका को बढ़ावा देने और बाघों की दुर्दशा के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयासों को बढ़ाने पर लक्ष्य केंद्रित है। बाघों को गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें वनों की कटाई के कारण उनके आवास का नुकसान, उनके अंगों के लिए अवैध शिकार और मनुष्यों के साथ संघर्ष इत्यादि प्रमुख रूप से शामिल हैं। शिकार, अवैध व्यापार, आवास का नुकसान, जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के कारण बाघों की कई प्रजातियां अब विलुप्त होने के कगार पर हैं। बाघों की खाल, हड्डियों तथा अन्य अंगों की मांग के चलते उनका अवैध शिकार किया जाता है। जलवायु परिवर्तन भी उन प्रमुख कारकों में से एक है, जिसने दुनियाभर में बाघों की आबादी के लिए खतरा पैदा किया है।
धरती के गर्म होने और समुद्र के बढ़ते स्तर से बाघों के आवास पर असर पड़ता है और उनके शिकार प्रजातियों की संख्या पर भी बड़ा असर पड़ सकता है। बाघों के सिकुड़ते आवास इन्हें मानव समुदायों के पास भटकने के लिए मजबूर कर सकते हैं, जिससे आने वाले समय में बाघ-मानव संघर्ष और बढ़ सकता है। बाघ दिवस इसलिए भी मनाया जाता है ताकि मनुष्य और बाघ सौहार्दपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकें।
बाघ दुनिया के सबसे बड़े जंगली बिल्ली प्रजाति के प्राणी हैं, जो विश्व की कई संस्कृतियों में शक्ति, साहस और सुंदरता के प्रतीक माने जाते हैं। अपनी शिकारी प्रवृत्ति के कारण बाघ घास के मैदानों, उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों, बर्फीले जंगलों और यहां तक कि मैंग्रोव दलदलों सहित कई प्राकृकृतक आवासों में जीवित रह सकते हैं लेकिन चिंता का सबसे बड़ा विषय यही है कि अपनी अनुकूलन क्षमता के बावजूद 20वीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक इन शानदार जीवों की संख्या में 95 प्रतिशत से भी अधिक की गिरावट आई है। ‘विश्व वन्यजीव कोष’ (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की रिपोर्ट के अनुसार बाघों की आबादी में पिछली एक सदी में भारी गिरावट दर्ज की गई है। रिपोर्ट के अनुसार एक सदी पहले पूरी दुनिया में करीब एक लाख बाघ जंगल में घूमते थे, जबकि वर्तमान अनुमानों के मुताबिक आज विश्वभर में करीब 4 हजार बाघ ही बचे हैं और यह संख्या भी लगातार कम होती जा रही है। दुनिया में अब भारत सहित केवल 10 देश ही ऐसे रह गए हैं, जहां बाघों के दर्शन हो सकते हैं।
बाघों की घटती संख्या दुनियाभर में एक गंभीर वैश्विक पर्यावरणीय चुनौती के रूप में सामने उभर रही है। दरअसल यदि दुनिया से बाघ विलुप्त हो जाएंगे तो इससे निश्चित रूप से पूरा पारिस्थितिक तंत्र गंभीर रूप से प्रभावित होगा। बाघ प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बाघ जंगल में जहां भी घूमते हैं, उस क्षेत्र के वे सबसे बड़े शिकारी होते हैं, जो दूसरे जानवरों का शिकार करते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बनाए रखने में मददगार साबित होते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक जंगलों में बाघों की अनुपस्थिति में उनके शिकार की आबादी काफी बढ़ सकती है, जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकती है। अनुकूल वातावरण नहीं होने के कारण इसका असर बाघों के जीवन पर पड़ रहा है। इसके अलावा जंगल भी लगातार कम हो रहे हैं, यही कारण है कि पास की बस्तियों और इलाकों में अक्सर बाघों के हमले की खबरें सुनने को मिलती रही हैं।
नारंगी और काली धारियों वाले बाघ शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय संस्कृति का तो अभिन्न हिस्सा रहे हैं। बाघ न केवल भारत का राष्ट्रीय पशु है बल्कि पूरी दुनिया के करीब 75 प्रतिशत बाघ भारत में ही हैं, जिनके संरक्षण के प्रयासों के चलते देश की इनकी आबादी पिछले दो दशकों में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। देश में बाघों की संख्या को बढ़ावा देने और इनके आवासों की सुरक्षा करने के उद्देश्य से ही भारत सरकार द्वारा 1 अप्रैल 1973 को ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की शुरुआत की गई थी, जिसके तहत कई टाइगर रिजर्व स्थापित किए गए, और बाघ संरक्षण के लिए विशेष नीतियां बनाई गई। शुरुआत में इस परियोजना में 18278 वर्ग किलोमीटर में फैले केवल नौ बाघ अभयारण्य (कॉर्बेट टाइगर रिजर्व, बांदीपुर टाइगर रिजर्व, कान्हा टाइगर रिजर्व, मानस टाइगर रिजर्व, सुंदरबन टाइगर रिजर्व, मेलघाट टाइगर रिजर्व, रणथंभौर टाइगर रिजर्व, पलामू टाइगर रिजर्व, सिमिलिपाल टाइगर रिजर्व) ही शामिल थे लेकिन वर्तमान में भारत में 55 बाघ अभयारण्य हैं, जो बाघों के आवास के 78735 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र को कवर करते हैं।
1972 में भारत में हुई पहली बाघ जनगणना में देश में कुल 1827 बाघ होने का अनुमान लगाया गया था। प्रोजेक्ट टाइगर के तहत किए जा रहे प्रयासों के चलते 2018 में भारत में बाघों की आबादी 2967 हो गई थी और 2022 में बढ़कर 3682 हो गई, जो परियोजना की शुरूआत से अब तक बाघों की आबादी में प्रतिवर्ष 6 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि दर को दर्शाता है। 9 अप्रैल 2023 को मैसूर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोजेक्ट टाइगर के 50 साल पूरे होने पर देश में कुल बाघों की जनसंख्या 3167 बताई थी लेकिन उस समय बाघों की गणना का कार्य चल रहा था और बाघों की संख्या का अंतिम आंकड़ा 3682 सामने आया था। राष्ट्रीय बाघ गणना ‘राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण’ (एनटीसीए) द्वारा राज्य वन विभागों, गैर सरकारी संगठनों और भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के साथ मिलकर प्रत्येक 4 वर्ष में की जाती है, जिसमें भू-आधारित सर्वेक्षणों और कैमरा टॉप से प्राप्त चित्रों पर आधारित दोहरी नमूना पद्धति का उपयोग किया जाता है।
आंकड़ों के अनुसार बाघ अभ्यारण्यों में बाघों की सर्वाधिक आबादी जिम कॉर्बेट में 260 है, उसके बाद बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में 150, नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान में 141, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में 135, दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में 135, मुदुमलाई राष्ट्रीय उद्यान में 114, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में 105, काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 104, सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान में 100, ताड़ोबा राष्ट्रीय उद्यान में 97, सत्यमंगलम बाघ अभयारण्य में 85 और पेंच बाघ अभ्यारण्य में 77 है। यह बेहद सुखद है कि 2006 के बाद से देश में बाघों की जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। 2006 में 1411 बाघों की जनसंख्या वाले देश में ‘सेव टाइगर’ अभियान का असर अब स्पष्ट दिखने लगा है। बाघों की कुल जनसंख्या में 2019 से 2022 के बीच में 24 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई और बाघों की आबादी इस दौरान सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश में दर्ज हुई, जहां चार वर्षों में 259 बाघ बढ़े। उत्तराखंड में बाघों की आबादी में चार वर्षों में 118 की वृद्धि दर्ज की गई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बाघों के संरक्षण के लिए बनाए गए देश के शीर्ष पांच टाइगर रिजर्व की बात की जाए तो उत्तराखंड का जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व सबसे आगे है, जहां अभी कुल बाघों की आबादी 260 है। देश के सबसे ज्यादा बाघों की आबादी वाले राज्य में मध्य प्रदेश के बाद कर्नाटक, उत्तराखंड और फिर महाराष्ट्र हैं। 2019 से 2022 के बीच कई राज्यों में बाघों की संख्या में कमी भी देखने को मिली है। तेलंगाना में बाघों की संख्या 26 से घटकर 21 रह गई जबकि छत्तीसगढ़ में यह 19 से घटकर 17, ओडिशा में 28 से घटकर 20, अरुणाचल प्रदेश में 29 से घटकर 9 पर आ गई है और झारखंड में तो 5 में से केवल 1 बाघ की ही सूचना मिली।
हालांकि यह गंभीर चिंता का विषय है कि भले ही 2019 से 2022 के बीच भारत में बाघों की संख्या में 715 की बढ़ोतरी दर्ज हुई लेकिन 2019 से 2023 के बीच पांच वर्षों की अवधि में देश में प्राकृतिक, अवैध शिकार और अन्य कारणों से 628 बाघों की मौत भी हुई है। बाघों की मौतों का यह कोई छोटा आंकड़ा नहीं है, यदि बाघों की इन मौतों में से अधिकांश को रोकने में सफलता मिली होती तो निश्चित रूप से बाघों की संख्या में देश में इस अवधि में बहुत बड़ी बढ़ोतरी दर्ज करने में सफलता मिलती। एक ओर जहां बड़ी संख्या में बाघों की मौत के मामले सामने आए हैं, वहीं बाघों के हमलों में भी इन पांच वर्षों में 349 लोग मारे गए हैं। हाल ही में राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री कीर्तिवर्धन सिंह ने बताया था कि 2012 के बाद 2023 में बाघों की सबसे ज्यादा मौतें हुई और 2019 से 2023 के बीच कुल 628 बाघ भारत में मारे गए। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के अनुसार 2019 में 96 बाघों की मौत हुई जबकि 2020 में 106, 2021 में 127, 2022 में 121 और 2023 में 178 बाघों मौत के मुंह में समा गए। 2019 और 2020 में बाघों के हमलों में 49-49 लोग मारे गए जबकि 2021 में 59, 2022 में 110 और 2023 में 82 लोग बाघों का शिकार बने। केवल महाराष्ट्र में ही 200 लोग बाघों का निवाला बन गए जबकि उत्तर प्रदेश में बाघों के हमलों में 59 और मध्य प्रदेश में 27 लोग मारे गए। बहरहाल, बाघों के अवैध शिकार और शिकार से निपटने के प्रयासों को तेज करने के साथ यह सुनिश्चित करने की भी अब तत्काल आवश्यकता है कि मनुष्य बाघों के क्षेत्रों में हस्तक्षेप न करें ताकि बाघ और मानव संघर्ष को रोकने में भी बड़ी मदद मिले।
महाराजा के साथ फुटबॉल खेलता था सफेद बाघ
पूरी दुनिया में वैसे तो बाघों की संख्या बेहद कम रह गई है, वहीं सफेद बाघ तो कहीं-कहीं विरले ही देखने को मिलते हैं। भारत में सफेद बाघ का संबंध मध्य प्रदेश के रीवा से माना जाता है। माना जाता है कि दुनिया का सबसे पहला सफेद बाघ मध्य प्रदेश के रीवा में ही पाया गया था, जिसका नाम ‘मोहन’ रखा गया था, सफेद बाघों को उसी के वंशज माना जाता है। कहा जाता है कि रीवा के महाराजा मार्तंड सिंह शिकार के बेहद शौकीन थे। एक बार उन्होंने शिकार के दौरान शेरनी सहित उसके दो शावकों को भी मार दिया था और सफेद बाघ को अपने साथ ले आए थे। उस सफेद बाघ का धीरे-धीरे उनसे इतना गहरा लगाव हो गया था कि वह हमेशा राजा मार्तण्ड सिंह के इशारों पर ही चलता था। महाराजा मार्तंड सिंह ने ही उसका नाम मोहन रखा था। ‘मोहन’ नामक वह सफेद बाघ महाराजा के साथ फुटबॉल भी खेलता था और रविवार के दिन मांस नहीं खाने का नियम रखता था, यही नहीं, वह प्रायः दूध का सेवन भी करता था। दूरसंचार विभाग द्वारा 1987 में सफेद बाघ मोहन की फोटो के साथ एक डाक टिकट भी जारी किया गया था। रीवा का मुकंदपुर सफारी मोहन की याद में ही सजोया गया है। कहा जाता है कि मोहन ही वह इकलौता बाघ था, जिसका पहली बार दिल्ली में ढ़ाई लाख रुपये का बीमा भी किया गया था।