धारा 370 हटने के बाद अब कश्मीर में चुनाव होने वाले हैं। जैसे-जैसे चुनाव की तारीख निकट आती जा रही है, वैसे-वैसे यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि कश्मीर की राजनीति में पहचान की लड़ाई है। ऋषि कश्यप के नाम पर बसे इस क्षेत्र की कश्मीरी पहचान को मिटाकर कश्मीरियत करने का षड्यन्त्र आज का नहीं है। यह आदि गुरु शंकराचार्य की पहचान मिटाने का भी षड्यन्त्र है।
ऋषियों और तपस्वियों की भूमि कश्मीर के क्षेत्रों के नामों के साथ जो छल किए गए हैं, वह वराहमूल जिले के वर्तमान में वारामूला तक की यात्रा से समझा जा सकता है। शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है? मगर क्या नाम में कुछ भी नहीं रखा है? यदि नाम में कुछ भी नहीं रखा है तो भारत पर जिन आतताइयों ने आक्रमण किया था तो उन्होनें भारत के स्थानों के नाम क्यों बदल दिए?
नाम दरअसल पहचान बताते हैं। वह एक संस्कृति को आगे लेकर जाने वाला होता है। वह उस क्षेत्र के इतिहास का विस्तारक होता है। जैसे भारत में राम नाम है! प्रभु श्रीराम के अस्तित्व को नकारने वाले दल के लोगों के नाम भी सीताराम जैसे ही हैं। जब पहचान नामों के माध्यम से यात्रा करती है तो वह समूचे क्षेत्र का इतिहास और संस्कृति बन जाता है। और जीनोसाइड समझने वाले लोग नाम का महत्व भली प्रकार से जानते हैं। इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि भारत में कश्मीर में कश्मीरी पहचान के साथ सैकड़ों वर्षों से जीनोसाइड होता आया है और वह अभी तक जारी है। जारी ही नहीं है बल्कि जो जीनोसाइड हो चुका है, उसे और पुख्ता करने के लिए उसमें और प्रयास किये जा रहे हैं।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के घोषणा पत्र में शंकराचार्य पहाड़ी को तख्त ए सुलेमान के रूप में संबोधित किया गया है। हरिपर्वत को कोही मारन बताया गया। जरा सोचें कि जिस कश्मीर की पहचान स्वयं महादेव और महादेवी से होती हो और जहां के पर्वतों के नाम भी उसी पहचान को लेकर हों, अब नेशनल कॉन्फ्रेंस के घोषणापत्र में इनके नाम बदल दिए गए। नेशनल कॉन्फ्रेंस के घोषणापत्र में क्या घोषणा की गई है? इसमें लिखा गया है कि – “हम तख्त-ए-सुलेमान (शंकराचार्य हिल) को कोह-ए-मारन (हरि पर्वत किला) के साथ एक गोंडोला प्रणाली के माध्यम से जोड़ने की व्यवहार्यता का आकलन करेंगे, जिससे कनेक्टिविटी बढ़ेगी और क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा।”
एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक जाने के लिए मार्ग बनाने में कोई समस्या नहीं है और न ही कोई मुद्दा है, परंतु मुद्दा है शंकराचार्य पर्वत और हरिपर्वत का नाम बदलना। उनका नाम इस्लामीकृत कर देना? शंकराचार्य पर्वत महादेव को समर्पित है और यहाँ पर महादेव का जो मंदिर है वह कश्मीर के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। कल्हण के अनुसार पर्वत को मूल रूप से गोपद्रिक या गोपा पर्वत के नाम से जाना जाता था। यह भी माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास ईसापूर्व से जुड़ा हुआ है। इस मंदिर को शंकराचार्य पर्वत नाम महान विचारक एवं आदि गुरु शंकराचार्य के नाम पर दिया गया।
इस मंदिर की मान्यता और इतिहास इस्लाम से भी पुराना है। यह स्पष्ट है कि यह पर्वत एक विशिष्ट पहचान को साथ लेकर चलता है जो हिंदुओं के इतिहास को या कहें कश्मीर के हिन्दू इतिहास और कश्मीर की हिन्दू परंपरा को दिखाता है।
हरिपर्वत के साथ भी यही है। हरिपर्वत को इसलिए हिंदुओं द्वारा पवित्र माना जाता है क्योंकि यहाँ पर जगदंबा भगवती का मंदिर है। वे यहाँ पर स्वयंभू शिला के रूप में उपस्थित हैं। इस मंदिर को श्रीनगर की ईष्ट देवी भी कहा जाता है। यहाँ पर छड़ी मुबारक भी आती है। हरिपर्वत और शंकराचार्य पर्वतों को आखिर इस्लामी पहचान किसलिए दी जा रही है? कॉंग्रेस भी इस मामले पर चुप है। स्वयं को महादेव का भक्त कहने वाले राहुल गांधी कश्मीर की आत्मा के साथ हो रहे इस छल पर मौन हैं ? भारत की पहचान को विदेशों में नीचा दिखाने वाले और देवता आदि की परिभाषा अपने मन से गढ़ने वाले राहुल गांधी कश्मीर के साथ किए जा रहे इस जीनोसाइड के कृत्य पर एकदम मौन धारण करके बैठे हुए हैं।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के इस घोषणापत्र को लेकर कश्मीरी हिन्दू भी आक्रोश में हैं। उनका कहना है कि शंकराचार्य पर्वत का नाम बदलना पहचान बदलने का कोई पहला प्रयास नहीं है। यह लगातार होता आ रहा है।
संत लल्लेश्वरी को लल्ला आरिफ कहकर कर रहे प्रचारित
यह भी ध्यान में रखा जाए कि कश्मीर की प्रख्यात संत लल्लेश्वरी देवी, जो हिन्दू दर्शन शैववाद की प्रख्यात विदुषी थीं, और जिन्होनें इस रहस्यवाद पर असंख्य वाख रचे हैं, उन्हें लल्ला आरिफ़ या लैला आरिफ़ कहकर भी प्रचारित किया जा रहा है। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक तरफ कश्मीर आधारित दल कश्मीरी हिंदुओं को बसाने की बात करते हैं तो वहीं उनकी पहचान को ही मिटाने का षड्यन्त्र हर दिन रचा जा रहा है।