इसे देश की विडंबना क्यों न माना जाए कि जनसंघ-भाजपा को छोड़कर भारत के इतिहास में भारत को कभी भी कोई जिम्मेदार विपक्ष नहीं मिल सका। नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर विपक्ष के मन में किसी तरह का उत्साह न होना तो समझा जा सकता है, लेकिन यहां तो विपक्षी दलों में इस उद्घाटन समारोह के बहिष्कार को लेकर भारी उत्साह प्रतीत हो रहा था। बहाना बनाया गया राष्ट्रपति का।
अच्छी बात यह है जिन्होंने राष्ट्रपति के पद को घोषित तौर पर निजी चाटुकारों के लिए सुरक्षित और संरक्षित करने की चेष्टा की, उनके इस निपट स्वांग को आम जनता अच्छी तरह समझ रही है और यह स्वांग हर मंच पर अनावृत्त हो चुका है। हर मंच पर यह बात बहुत ठोस ढंग से रखी गई कि किस प्रकार कांग्रेस के प्रथम परिवार के छोटे-बड़े सदस्यों ने राष्ट्रपति या राज्यपाल को आमंत्रित किए बिना, किसी भी संवैधानिक पद पर हुए बिना, विभिन्न सरकारी भवनों और परियोजनाओं का उद्घाटन किया और किस प्रकार कांग्रेस और विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति मुर्मू की आदिवासी पृष्ठभूमि के कारण उनका मजाक उड़ाया था।
अगर राष्ट्रपति ही मुद्दा थीं, तो 2017 में जीएसटी लागू करने के अवसर पर कांग्रेस ने समारोह का बहिष्कार क्यों किया था? तब तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मोदी दोनों उपस्थित थे। लेकिन आज वे राष्ट्रपति के बहाने नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार कर रहे हैं। हर व्यक्ति समझ रहा है कि मुद्दा राष्ट्रपति नहीं थीं। असल मुद्दा सरकार की हर पहल का आंख मूंदकर विरोध करना भर है। क्यों नहीं वे खुल कर कहते हैं कि असली कारण राष्ट्रपति की ‘प्रशंसा’ नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के लिए ‘घृणा/ईर्ष्या/जुगुप्सा’ है?
लेकिन दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो प्रश्न यह है कि ऐसे दलों से जिम्मेदारी से व्यवहार कर सकने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है, जिनमें सच बोलने का भी साहस नहीं है? खास तौर पर कांग्रेस। अगर कांग्रेस के अहम को इस कारण ठेस लग रही है कि वे सत्ता में हमेशा के लिए क्यों नहीं हैं, तो उसे यह समझना चाहिए कि अपनी जिस काल्पनिक सर्वोपरिता को वह अपने अस्तित्व का आधार मानती है, उसके दिन 1980 के दशक के अंत में ही लद चुके थे, जब वह त्रिकोणीय मुकाबलों में भी तीसरे स्थान पर आती थी, और अब 2024 आ रहा है।
इनसे ज्यादा स्पष्टता तो के.सी. त्यागी ने प्रदर्शित की है, जिन्हें हाल ही में नीतिश कुमार ने फिर से खोज निकाला है। के.सी. त्यागी ने कहा है कि वे नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार इसलिए करेंगे, क्योंकि वे विपक्षी एकता के पक्ष में हैं। ठीक है। लेकिन यह तर्कविहीन जिद अब अपने ही दांव में फंस चुकी है।
विपक्ष सिर्फ प्रधानमंत्री का या नए संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार नहीं कर रहा है, वह थिरुवदुथुराई के गोमुक्तेश्वर मंदिर से जुड़े वैदिक शैव अधीनम् के राजदंड, सेंगोल का भी बहिष्कार कर रहा है, जो चोल वंश में सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक रहा है और इस भूमि की संप्रभुता का प्रतीक है। सेंगोल शब्द तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है धार्मिकता। यह धर्मदंड है, यह भारत की स्वतंत्रता का एक ऐतिहासिक प्रतीक है।
जवाहरलाल नेहरू ने 14 अगस्त 1947 को इसे एक विशेष समारोह में प्राप्त किया था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसे निजी भेंट के तौर पर इलाहाबाद संग्रहालय में सोने की छड़ी के रूप में लेबल किया गया था। विपक्ष के लगातार चले आ रहे रवैये को देखते हुए अगर यह प्रश्न उठता है कि क्या विपक्ष शीर्ष पर न्याय के प्रतीक ‘नंदी’ वाले और कोलारू थिरुपथिगम से अभिमंत्रित राजदंड का बहिष्कार हिन्दू प्रतीकों से घृणा जताने की अपनी आदत के कारण कर रहा है, तो इससे वह इनकार कैसे कर सकेगा? वास्तव में कांग्रेस के अलावा डीएमके को भी इसका उत्तर देना चाहिए।
चोल राजवंश का तो तमिलनाडु से गहरा संबंध है। क्या डीएमके का तथाकथित ‘तमिल गौरव’ केवल धोखा देकर वोट लेने का नारा है? अन्यथा जिस संसद भवन को अपना आशीर्वाद देने 31 अत्यधिक श्रद्धेय अधीनम संत तमिलनाडु से आ रहे हैं, उस तमिलनाडु के दल को बहिष्कार इतना अनिवार्य क्यों लग रहा है? साफ है कि कांग्रेस के पचड़े में पड़कर अन्य विपक्षी दल अपना हित-अहित समझने की भी क्षमता खोते जा रहे हैं।