भारत के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर कुकी और मैतेई के बीच जातीय हिंसा के कारण पिछले कुछ समय से चर्चा में है। हाल के दिनों में मणिपुर और मिज़ोरम के साथ-साथ और बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ क्षेत्रों में बसे कुकी ईसाइयों पर ‘ज़ोगाम’ या ‘ज़लेनगाम’ नाम से एक अलग ईसाई देश बनाने के प्रयासों का आरोप लगा है। हालाँकि, ऐतिहासिक रूप से मणिपुर एक मैतेई राज्य था।
मणिपुर की खूबसूरत धरती पर पम्हीबा नाम के एक राजा राज करते थे। यह बहुत पुरानी बात नहीं। है। साल 1690 में जन्मे पम्हीबा को मणिपुर राज्य में बड़ सामाजिक-राजनीतिक एवं धार्मिक परिवर्तनों के लिए याद किया जाता है। अपनी प्रजा के लिए उन्होंने जो कुछ किया, इसके कारण राजा पम्हीबा को गरीब नवाज भी कहा जाता था। गरीब नवाज फारसी शब्द है, जिसका अर्थ दयालु या प्रजा वत्सल है।
पम्हीबा का जन्म और मौत का साया
राजा चराइरोंग्बा और छोटी रानी नंगशेल छराइबी के बेटे पम्हीबा सन 1709 में कांगलीपाक के राजा बने। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 19 साल थी। उस समय मणिपुर को कांगलीपाक के नाम नाम से जाता था। यह नाम मैइतेई लोगों की स्थानीय संस्कृति और मान्यताओं से जुड़ा था। इस राज्य के लोग सनमाहिम या कांगलेइ परंपरा को मानते थे। ये लोग जीववादी थे और अपने पूर्वजों की पूजा किया करते थे।
लेखक विक्रम संपत ने अपनी किताब ‘शौर्य गाथाएँ: भारतीय इतिहास के अविस्मरणीय योद्धा’ में लिखा है कि उस समय मैतेई राजपरिवार में एक नृशंस परंपरा थी। बड़ी रानी के अलावे अन्य रानियों के बेटों को मार दिया जाता था। इसके पीछे उद्देश्य था कि बड़े बेटे के उत्तराधिकार को लेकर कोई अन्य बेटा समस्या ना पैदा करे और इसके कारण कोई सत्ता संघर्ष भी ना हो।
पम्हीबा राजा चराइरोंग्बा की सबसे छोटी रानी के बेटे थे। इसलिए वे भी मौत के घाट उतारे जाते, इससे पहले ही उनकी माँ ने गुपचुप तरीके से पम्बीहा को एक नगा कबीले के सरकार के घर भेजवा दिया। बाद में बड़ी रानी को पता चला कि छोटी रानी का भी बेटा है तो वह उसे मरवाने की लगातार कोशिशें करती रहीं, लेकिन पम्हीबा हर बार बच जाते थे।
विक्रम संपत ने अपनी किताब में लिखा है कि राजा चराइरोंग्बा को किसी अन्य रानी से कोई बेटा नहीं हुआ। आखिरकार वे अपने उत्तराधिकारी की तलाश करने लगे। एक दिन राजा चराइरोंग्बा एक गाँव से गुजर रहे थे। वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्हें उसमें एक बच्चे को बेहद होशियार एवं निडर देखा। वह बच्चा पम्हीबा थे। इसके बाद उन्हें लेकर राजा राजमहल आ गए और बाद मे उन्हें अपनी गद्दी सौंपी।
मणिपुर का हिंदू राज्य के रूप में उदय
राजा चराइरोंग्बा ने भारत के बाकी राज्यों के साथ भी अपने राजनयिक संबंध बनाने शुरू कर दिए थे। इसके साथ ही उनका झुकाव हिंदू धर्म की ओर बढ़ चला था। उन्होंने हिंदू प्रथाओं का पालन करना भी शुरू कर दिया था। जब पम्हीबा राजा बने तो ये संबंध और भी मजबूत मजबूत हुए। इतना ही नहीं, पम्हीबा ने हिंदू धर्म अपना लिया और इसे अपने राज्य का मुख्य धर्म घोषित कर दिया।
कहा जाता है कि सन 1717 में राजा पम्हीबा शांतिदास गोसाईं (जिन्हें गोशाई भी लिखा जाता है) के प्रयासों से हिंदू धर्म के संपर्क में आए। गोसाईं बंगाल के सिलहट के एक वैष्णव प्रचारक और चैतन्य संप्रदाय के अनुयायी थे। शांतिदास के मार्गदर्शन में पम्हीबा ने वैष्णव धर्म को अपनाया। वैष्णव संप्रदाय भगवान विष्णु, भगवान राम और कृष्ण को समर्पित भक्ति संप्रदाय है।
राजा के हिंदू बनने के साथ ही वहाँ की प्रजा पर भी इसका बड़ा प्रभाव पड़ा। कांगलीपाक के मैतेई समुदाय के लोग भी बड़ी संख्या में हिंदू धर्म को अपनाने लगे। इसके कारण कुछ पारंपरिक मैतेई अनुष्ठानों का कायापलट हो गया या फिर उन्हें हिंदू रीति-रिवाजों से बदल दिया गया या उनमें मिला दिया गया। इस तरह हिंदू धर्म का प्रभाव बढ़ता रहा। सन 1724 में उन्होंने कांगलीपक का नाम मणिपुर कर दिया।
राजा पम्हीबा अपने लोगों या बाहर से आने वाले व्यापारियों को लेकर इतने उदार थे कि मुस्लिम प्रवासी उन्हें गरीब नवाज कहने लगे थे। हालाँकि, राजा पम्हीबा का हिंदू नाम गोपाल सिंह था। उन्होंने अपने दरबार में मंदिर बनवाए और हिंदू रीति-रिवाज अपनाए। राजा पम्हीबा को मणिपुरेश्वर के नाम से भी जाना जाता था, क्योंकि उन्होंने कंगलीपाक का नाम बदलकर संस्कृत नाम मणिपुर रख दिया था।
राजा पम्हीबा ने राजधानी इम्फाल में ब्रह्मपुर गुरुआरीबाम लेईकाई के श्रीकृष्ण मंदिर सहित कई हिंदू मंदिरों का निर्माण करवाया था। हालाँकि, उस दौरान मैतेई देवताओं के कई मंदिरों को या तो ध्वस्त कर दिया गया या हिंदू मंदिर बना दिया गया। पम्हीबा के वंशज राजा भाग्यचंद्र उर्फ जय सिंह और गंभीर सिंह आदि ने भी हिंदू मंदिरों का निर्माण जारी रखा। राजा भाग्यचंद्र ने ‘रासलीला नृत्य’ का आविष्कार किया था।
मणिपुर में हिंदू धर्म के उदय का श्रेय राजा पाम्हीबा को देते हुए टीसी होडसन ने अपनी पुस्तक ‘द मीथिस’ में लिखा है, “पाम्हीबा (गरीब निवाज), जिनके शासनकाल में राज्य का भाग्य अपने चरम पर पहुँच गया, उनकी शाही इच्छा के कारण हिंदू धर्म को राज्य के आधिकारिक धर्म के रूप में अपनी वर्तमान स्थिति प्राप्त हुई है।” इसी तरह 33 ईस्वी से चला आ रहा राजपरिवार हिंदू बन गया।
हालाँकि, मैतेई समुदाय के बीच हिंदू धर्म का विस्तार काफी पुरानी घटना है। एसके चटर्जी ने अपनी पुस्तक ‘किरात-जन-कृति: द इंडो-मंगोलोइड्स; देयर कंट्रीब्यूशन टू द हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडिया’ में लिखा है, “ऐसा प्रतीत होता है कि मैतेई या मणिपुरी कम-से-कम 8वीं शताब्दी की शुरुआत में हिंदू धर्म में शामिल हो गए थे जब उनके बीच वैष्णव धर्म फैल गया था।”
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 8वीं शताब्दी के अंत तक मणिपुर हिंदू संस्कृति के प्रभाव में आ गया था। राजा खोंगटेकचा (765-799 ई.) द्वारा शक संवत 721 (799 ई.) को मणिपुरी लिपि में जारी एक ताम्रपत्र को मणिपुरी पुरातत्वविद् युमजाओ सिंह ने इम्फाल से लगभग 9 मील पश्चिम में फेयेंग गाँव से खोजा था। इस पर शिव, दुर्गा, हरि, गणेश और अन्य हिंदू देवताओं की पूजा के प्रचलन का जिक्र था।
बर्मा के खिलाफ पम्हीबा का सैन्य अभियान
राजा पम्हीबा न केवल प्रजा वत्सल शासक थे, बल्कि वे एक महत्वाकांक्षी सैन्य संचालक भी थे। उनके शासन के दौरान मणिपुर ने पूर्व में बर्मा और पश्चिम में छोटे राज्यों के खिलाफ सफल सैन्य अभियान चलाया और उन्हें मणिपुर में मिलाकर अपने क्षेत्रों का काफी विस्तार किया। राजा पम्हीबा ने 1725 में पहली बार बर्मा पर आक्रमण किया, लेकिन वास्तविक उपलब्धि 1737 में मिली।
उस दौरान मैतेई सेना ने थोड़े समय के लिए बर्मा की राजधानी अवा सहित बर्मा की भूमि के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। बर्मा के खिलाफ़ उनके अभियान का मकसद अपने राज्य को उसके हमले से बचाना था। कहा जाता है कि शादी की पार्टी की आड़ में घात लगाकर बर्मा की सेना को हराया था। वहाँ से मणिपुर की सेना को काफी मात्रा में धन संपत्ति भी मिला था।
बर्मा पर हमले के पीछे एक प्रमुख कारण उनके पिता चराइरोंग्बा से किया गया वादा भी था। ‘समसोक न्गाम्बा’ में कहा गया है कि बर्मी राजा ने अपने पिता के शासनकाल के दौरान पम्बीहा की बहन का कथित तौर पर अपमान किया था। इसका बदला वे नहीं ले सके थे। सिंहासन पर बैठने के बाद पम्हीबा ने जवाबी कार्रवाई करने की कसम खाई और बर्मा के खिलाफ कई सफल सैन्य अभियान शुरू किए।
वहीं, संपत अपनी किताब में लिखते हैं कि 1725 में बर्मा के राजा तानिंगान्वे लड़ाई हार गए। इसके बाद पम्बीहा ने उन्हें शांति वार्ता के लिए बुलाया। उस दौरान तानिंगान्वे ने दंभपूर्ण रवैया अपनाते हुए पम्बीहा की बहन सत्यमाला से विवाह का प्रस्ताव रख दिया। यह एक हारे हुए राजा की तरफ से दिया जाने वाला प्रस्ताव अपमानजनक था।
हालाँकि, पम्बीहा ने कुछ सोचकर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। जब सत्यमाला के साथ शादी के लिए बर्मा का राजा तानिंगान्वे मणिपुर पहुँचा तो वहाँ बारातियों को ठहराया गया। इसके बाद मणिपुरी सैनिक सामान्य वेश में वहाँ पहुँचकर बर्मा के सेना का कत्लेआम मचा दिया। इस तरह से अपने और अपनी बहन के अपमान का बदला पम्बीहा ने ले लिया।