महाकुंभ में नागा साधुओं का शाही स्नान सबसे पहले करना एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा है, जिसका गहरा संबंध भारतीय धार्मिक और समाजिक इतिहास से है। इस परंपरा का एक दिलचस्प और 265 साल पुराना किस्सा है, जो इस बात को स्पष्ट करता है कि क्यों नागा साधु सबसे पहले स्नान करते हैं।
नागा साधु और वैरागी साधु के बीच संघर्ष:
यदुनाथ सरकार ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ दशनामी नागा संन्यासीज’ में लिखा है कि कुंभ मेले में पहले स्नान को लेकर नागा साधु और वैरागी साधु के बीच हमेशा संघर्ष होते रहे हैं। 1760 के हरिद्वार कुंभ के दौरान, पहले स्नान को लेकर नागा साधुओं और वैरागियों के बीच खूनी संघर्ष हुआ था, जिसमें दोनों ओर से तलवारें चलीं और सैकड़ों वैरागी संत मारे गए। इसके बाद भी 1789 के नासिक कुंभ में यही स्थिति बनी, जिसमें फिर से वैरागियों का खून बहा।
पेशवा कोर्ट का आदेश:
इस संघर्ष के बाद, बाबा रामदास (चित्रकूट खाकी अखाड़े के महंत) ने पुणे के पेशवा दरबार में शिकायत की। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप, 1801 में पेशवा कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इस निर्णय के तहत, नागा और वैरागी साधुओं के लिए अलग-अलग स्नान घाटों की व्यवस्था की गई।
- नागा साधुओं को त्र्यंबक में कुशावर्त कुंड और वैरागियों को नासिक में रामघाट पर स्नान करने की अनुमति दी गई।
- इसी प्रकार, उज्जैन कुंभ में भी नागा साधुओं के लिए दत्तघाट और वैरागियों के लिए रामघाट निर्धारित किए गए।
कुल मिलाकर परंपरा का महत्व:
इस परंपरा के पीछे मुख्य कारण यह था कि नागा साधु पहले धार्मिक संगठनों की ओर से सत्ता और सम्मान के प्रतीक माने जाते थे, और उन्हें यह अधिकार दिया गया था कि वे सबसे पहले स्नान करें। इसके बाद, बाकी सभी श्रद्धालुओं को शाही स्नान की अनुमति मिलती है।
यह परंपरा आज भी महाकुंभ के दौरान जारी है, जहां नागा साधु पहले स्नान करते हैं, और इसके बाद ही बाकी श्रद्धालुओं को स्नान का अवसर मिलता है। यह पूरी प्रक्रिया केवल धार्मिक नहीं, बल्कि भारतीय समाज के पुराने इतिहास और संस्कृति का हिस्सा भी है।
अंग्रेजों के शासन के बाद का हल:
अंग्रेजों के शासन के बाद हरिद्वार और प्रयाग में पहले स्नान को लेकर विवाद जारी रहा। फिर एक व्यवस्था बनाई गई कि सबसे पहले शैव नागा साधु स्नान करेंगे, इसके बाद वैरागी स्नान करेंगे। इसके साथ ही, यह भी तय किया गया कि अखाड़ों की सीक्वेंसिंग भी निर्धारित की जाए, ताकि विभिन्न अखाड़े आपस में न लड़ें। यह व्यवस्था आज तक जारी है और यही परंपरा बन गई है।
नागा स्नान करने की धार्मिक मान्यता:
- अमृत कलश का संघर्ष:
- एक धार्मिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन से अमृत कलश प्राप्त हुआ था, और देवता और असुर इसके लिए संघर्ष कर रहे थे। इस दौरान अमृत की 4 बूंदें कुंभ के चार प्रमुख स्थानों (प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार, और नासिक) पर गिर गईं। इन स्थानों पर हर बार महाकुंभ मेला आयोजित किया जाता है, और इन्हें अमृत के वृष्टि स्थल माना जाता है।
- नागा साधु, जो कि भोले बाबा (शिव) के अनुयायी माने जाते हैं, उन्हें इस अमृत स्नान का पहला अधिकार प्राप्त हुआ। धार्मिक रूप से इन्हें अधिक आध्यात्मिक शक्ति और उर्जा का प्रतीक माना जाता है। इसी कारण यह परंपरा शुरू हुई कि नागा साधु ही सबसे पहले शाही स्नान करें।
- आदि शंकराचार्य की स्थापना:
- एक अन्य मान्यता के अनुसार, आदि शंकराचार्य ने धर्म की रक्षा के लिए नागा साधुओं की एक टोलियां बनाई। इसके बाद अन्य संतों ने इन्हें पहले स्नान करने के लिए आमंत्रित किया। चूंकि नागा साधु भोले शंकर (शिव) के उपासक होते हैं, इसलिए उन्हें यह पहले स्नान का अधिकार दिया गया।
‘संस्कृति का महाकुंभ’:
महाकुंभ की शुरुआत 14 जनवरी को मकर संक्रांति के दिन हुई थी, जब 3.5 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने त्रिवेणी संगम में पवित्र डुबकी लगाई। इसके साथ ही, दस देशों का 21 सदस्यीय दल भी इस अवसर पर संगम में स्नान करने के लिए पहुंचा। इन श्रद्धालुओं ने अखाड़ों के संतों से दर्शन भी किए।
महाकुंभ में इस बार ‘संस्कृति का महाकुंभ’ कार्यक्रम भी आयोजित किया जा रहा है, जो 16 जनवरी से 24 फरवरी तक चलेगा। इस कार्यक्रम में देश के नामचीन कलाकार भारतीय संस्कृति का प्रचार करेंगे। मुख्य मंच पर गंगा पंडाल होगा, जहां भारतीय संस्कृति की महिमा का प्रदर्शन किया जाएगा।
इस प्रकार, नागा साधुओं का पहला स्नान न केवल एक धार्मिक परंपरा है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे हर वर्ष कुंभ मेले में श्रद्धा और सम्मान के साथ निभाया जाता है।