अब संकेत मिलने लगे हैं कि अशोक गहलोत-सचिन पायलट के बीच सुलह की जो कोशिश राहुल गांधी और खरगे ने की थी, नाकामयाब रही. सचिन पायलट फिलहाल कांग्रेस से कट्टी करने का फैसला कर चुके हैं. अगर ऐसा होता है कि सचिन कोई नई पार्टी बनाते हैं तो संभव है कि इस विधानसभा चुनाव में अपने लिए बहुत कमाल न कर पाएं लेकिन कांग्रेस का खेल बिगाड़ देंगे. नुकसान किसी न किसी रूप में भारतीय जनता पार्टी को भी होगा. इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सभी छोटे दल मिलकर राजस्थान विधानसभा का चुनाव लड़ जाएं.
हालांकि, राजस्थान में जितने भी छोटे दल अब तक प्रकाश में आए, चुनावों में वे बहुत कमाल कभी नहीं कर पाए. इन दलों से बढ़िया प्रदर्शन चुनावों में निर्दलियों का रहा है. हम सब जानते हैं कि राजस्थान में सबसे पहले कांग्रेस के अलावा जनता दल ने सरकार बनाई. सन 1977 से 1980 तक भैरों सिंह शेखावत सीएम रहे. फिर 1990 और 1993 में हुए चुनाव में भाजपा ने जीत दर्ज की और भैरों सिंह शेखावत सीएम बने. 1998 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने वापसी की. तब से अब तक एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की सरकार बनती चली आ रही है.
साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी तब सचिन पायलट डिप्टी सीएम बनाए गए. उनके समर्थक मानते थे कि सचिन ही सीएम बनेंगे क्योंकि वे पीसीसी के अध्यक्ष भी थे. स्वाभाविक रूप से कुछ दिन बाद उनके तेवर बगावती हुए और देखते ही देखते उनका डिप्टी सीएम पद जाता रहा. कुछ दिन शांत रहने के बाद अचानक सचिन फिर सक्रिय हुए तो अपनी ही सरकार के खिलाफ ताल ठोंक दी. धरना-प्रदर्शन, पद यात्रा आदि के माध्यम से वे माहौल बनाते रहे.
इस बीच 29 मई को कांग्रेस अध्यक्ष खरगे और राहुल गांधी ने अशोक गहलोत-सचिन पायलट को एक साथ बैठाकर दिल्ली बातचीत की, और लगा कि सब कुछ सामान्य हो गया लेकिन जैसे ही सचिन लौटे फिर अपने रौब में आ गए. बताया जा रहा है कि अब वे नई पार्टी बनाकर एक नए संघर्ष की शुरुआत करेंगे. उनके पीछे प्रशांत किशोर की कंपनी काम कर रही है. धरना, पदयात्रा की योजना बनाने में इसी कंपनी की भूमिका बताई जाती है. पता चला है कि अपने पिता राजेश पायलट की पुण्य तिथि पर सचिन यह घोषणा कर सकते हैं.
सचिन पायलट की गुर्जर बहुल जिलों भीलवाडा, टोंक, दौसा, करौली, सवाई माधोपुर, धौलपुर, भरतपुर, अलवर आदि क्षेत्रों पर अच्छी पकड़ है. इन जिलों में करीब 60 सीटें हैं. इनमें 15 गुर्जर बहुल हैं तो 20-22 सीटें ऐसी हैं जहां गुर्जर दूसरे-तीसरे नंबर पर हैं. साल 2013 के चुनाव में भाजपा यहां से करीब 44 सीटें जीत पाई थी. साल 2018 के चुनाव में सचिन पायलट पीसीसी अध्यक्ष थे और चुनाव को लीड कर रहे थे तब यहां भाजपा 11 सीटों पर सिमट गई. हालांकि, हमें यह नहीं भूलना है कि कांग्रेस नेता सचिन पायलट और किसी नए दल के नेता सचिन पायलट के प्रभाव में जमीन-आसमान का अंतर होगा. इन इलाकों में भाजपा को कुछ लाभ मिल सकता है.
सचिन के इस फैसले के साथ राजस्थान के राजनीतिक गलियारों में थर्ड फ्रंट की चर्चा शुरू हो गयी है. नागौर के एमपी एवं राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी के प्रमुख हनुमान बेनीवाल, आम आदमी पार्टी, भारतीय ट्राइबल पार्टी, देवी सिंह भाटी सरीखे नेता इसके हिस्से बन सकते हैं. हालाँकि, बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में रहेगी. उसका रुख क्या होगा, यह देखना बाकी है. पर, अगर इस थर्ड फ्रंट में सचिन भी शामिल हो जाते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं कि सब मिलकर किंग मेकर की भूमिका में आ जाएँ.
हालाँकि, राज्य और राजनीति दोनों के लिए ऐसे किंग मेकर अच्छे नहीं माने जाते क्योंकि सरकार कोई भी बनाए, एक साथ इतने दलों को संतुष्ट रखना टेढ़ी खीर होगी. जानकार बताते हैं कि थर्ड फ्रंट करीब 75-80 सीटों पर असर डाल सकता है. अगर ऐसा कुछ हुआ तो राजस्थान चुनाव न केवल रोचक हो जाएगा बल्कि रिजल्ट भी चौंकाने वाला आएगा.
राजस्थान की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले सीनियर जर्नलिस्ट, आईआईएमसी के प्रोफेसर राकेश गोस्वामी कहते हैं कि राजस्थान में छोटे दल कभी भी कुछ कमाल नहीं कर पाए. वे हमेशा दो-चार सीटों पर ही सिमट कर रह गए. ऐसे में सचिन पायलट अकेले क्या कर पाएंगे, यह खुद में सवाल है. हाँ, कांग्रेस को जरूर नुकसान होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. क्योंकि चुनाव सिर पर है और ऐसे समय पर पार्टी को झटका महत्वपूर्ण है.