आन्ध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने एक निर्णायक फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि ईसाई बन जाने वाले लोग खुद को SC-ST नहीं बता सकते। हाई कोर्ट ने कहा है कि ईसाइयत में जातिप्रथा नहीं है। आन्ध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने यह फैसला एक ईसाई पादरी की शिकायत पर दिया है। पादरी दूसरे पक्ष पर SC-ST का मुकदमा चलाना चाहता था। पादरी का दावा था कि उसे जाति के नाम पर गाली दी गई है। आन्ध्र प्रदेश है कोर्ट ने उसकी यह दलीलें मानने से इनकार कर दिया।
फैसले का सारांश
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मामला: एक ईसाई पादरी ने SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत एक मामला दर्ज कराया, जिसमें उसने आरोपितों पर जातिसूचक गालियाँ देने और मारपीट करने का आरोप लगाया।
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हाई कोर्ट का निर्णय:
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याचिकाकर्ता धर्मांतरण कर ईसाई बन चुका था, और वह 10 वर्षों से पादरी के रूप में कार्यरत था।
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इसलिए वह अब SC-ST अधिनियम का लाभ नहीं ले सकता, क्योंकि ईसाई धर्म में जाति व्यवस्था मान्य नहीं है।
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कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में SC-ST एक्ट का उपयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि अधिनियम उन्हीं लोगों पर लागू होता है जो हिंदू, बौद्ध या सिख अनुसूचित जातियों में आते हैं।
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पादरी द्वारा दर्ज मामला दुरुपयोग की श्रेणी में आया, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया और पुलिस को भी फटकार लगाई कि बिना जांच चार्जशीट दाखिल करना गलत है।
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कानूनी विश्लेषण
📜 SC-ST Act की वैधानिक सीमाएँ:
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अनुच्छेद 341 के तहत भारत सरकार समय-समय पर अनुसूचित जातियों की अधिसूचना जारी करती है।
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1950 के राष्ट्रपति आदेश के अनुसार केवल वे ही व्यक्ति अनुसूचित जातियों में शामिल माने जाते हैं जो:
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हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म को मानते हों (बाद में संशोधन कर सिख और बौद्ध को शामिल किया गया)।
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ईसाई या मुस्लिम बनने पर SC की मान्यता समाप्त हो जाती है।
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इसलिए यदि कोई व्यक्ति धर्मांतरण कर लेता है, तो वह SC एक्ट या आरक्षण का लाभ नहीं ले सकता।
इस फैसले के सामाजिक और कानूनी निहितार्थ
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SC-ST एक्ट के दुरुपयोग पर रोक:
अदालत ने स्पष्ट किया कि कानून का राजनीतिक या सामाजिक हितों के लिए दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। -
धर्मांतरण और आरक्षण पर स्पष्टता:
यह फैसला बताता है कि धार्मिक पहचान बदलने से जातीय पहचान से जुड़े कानूनी अधिकार स्वतः समाप्त हो जाते हैं। -
पुलिस प्रक्रिया में पारदर्शिता की आवश्यकता:
कोर्ट ने पुलिस को फटकार लगाई, जिससे स्पष्ट होता है कि बिना जांच किसी संवेदनशील एक्ट में केस दर्ज करना कानूनी और नैतिक रूप से अनुचित है।
प्रसंगिक प्रश्न और बहस
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क्या ईसाई बनने के बाद भी जातिगत भेदभाव का अनुभव हो सकता है?
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क्या धर्मांतरण के बावजूद सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए कुछ संरक्षित व्यवस्थाएं होनी चाहिए?
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क्या धर्मांतरण करने वाले SC व्यक्तियों के लिए अलग से कोई संरक्षण नीति होनी चाहिए?
इन सवालों पर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न आयोगों (जैसे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग) में बहस होती रही है, और यह एक सतत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा है।
यदि आप चाहें तो मैं इस फैसले से संबंधित:
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सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले (जैसे Soosai vs Union of India), या
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जाति और धर्मांतरण पर आयोगों की रिपोर्ट (जैसे रंगनाथ मिश्रा आयोग)
का भी सारांश दे सकता हूँ।