एक बार फिर यह कठोर सच्चाई सामने लाती है कि भारत जैसे तेजी से आगे बढ़ते देश में डायन प्रथा जैसी अंधविश्वासी, अमानवीय और हिंसक कुप्रथाएं आज भी गहराई से जड़ें जमाए हुए हैं। मुजफ्फरपुर की घटना — जहां एक 70 वर्षीय महिला को डायन बताकर पीटा गया, घसीटा गया, और अपमानित किया गया — यह दर्शाती है कि केवल कानून बना देना पर्याप्त नहीं है। समाज की सोच नहीं बदली तो ये कानून भी असहाय साबित होते हैं।
डायन प्रथा: एक सामाजिक बीमारी
- अंधविश्वास, अशिक्षा, और पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते महिलाओं को निशाना बनाया जाता है।
- विशेष रूप से बुजुर्ग, विधवा, अकेली या मानसिक रूप से कमजोर महिलाएं इस हिंसा की शिकार होती हैं।
- कई बार इसका दुर्भावनापूर्ण इस्तेमाल संपत्ति हथियाने, निजी दुश्मनी निकालने या परिवार को तोड़ने के लिए किया जाता है।
आँकड़े और वास्तविकता:
- NCRB के मुताबिक 2022 में डायन के नाम पर 85 हत्याएं दर्ज हुईं, लेकिन जमीनी स्तर पर यह संख्या अधिक हो सकती है।
- कई महिलाएं पुलिस तक नहीं पहुंच पातीं, क्योंकि:
- समाज का दबाव
- स्थानीय स्तर पर पुलिस की अनदेखी
- पीड़िता का सामाजिक बहिष्कार
कानून हैं, लेकिन सामाजिक इच्छाशक्ति कम है:
- कई राज्यों में अलग-अलग विच हंटिंग विरोधी कानून हैं:
- बिहार: Prevention of Witch (Daain) Practices Act, 1999
- झारखंड: 2001 का एक्ट
- असम, राजस्थान जैसे राज्यों में 2015 के बाद कानून लागू हुए
- लेकिन कानून का क्रियान्वयन कमजोर है। FIR नहीं होती, चार्जशीट नहीं बनती, सज़ा नहीं होती।
आशा की किरण:
- बीरूबाला राभा (असम) और छुटनी देवी (झारखंड) जैसे कार्यकर्ताओं ने इस कुप्रथा के खिलाफ अकेले मोर्चा लिया।
- छुटनी देवी को पद्मश्री मिला — यह दिखाता है कि जमीनी संघर्ष को सम्मान मिलता है।
- झारखंड की ‘गरिमा योजना’ जैसी पहलें पुनर्वास की दिशा में सराहनीय प्रयास हैं।
अब क्या ज़रूरी है?
- समाज में वैज्ञानिक सोच और मानवाधिकारों की समझ को फैलाना।
- शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को गाँव-गाँव तक ले जाना।
- स्कूलों और पंचायत स्तर पर जागरूकता अभियान।
- कानून को कठोरता से लागू करना, और पुलिस-प्रशासन की जवाबदेही तय करना।
- पीड़ित महिलाओं के पुनर्वास और सामाजिक सम्मान की व्यवस्था।