छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का यह फैसला न्यायपालिका के सामने आने वाली दुविधा और पुनर्वास के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें सजा का उद्देश्य केवल प्रतिशोध नहीं, बल्कि सुधार और पुनर्वास भी है। इस फैसले ने न केवल दोषी की जाति और पृष्ठभूमि पर विचार किया, बल्कि अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों का भी आकलन किया।
मुख्य बिंदु:
- न्यायालय का दृष्टिकोण:
- हाई कोर्ट ने कहा कि दोषी की ओबीसी (OBC) पृष्ठभूमि और उम्र (29 वर्ष) को ध्यान में रखते हुए उसके सुधार की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता।
- अदालत ने फांसी की सजा को बदलकर आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया, यह मानते हुए कि यह न्याय के लिए पर्याप्त होगा।
- गंभीरतम अपराध की परिभाषा:
- हाई कोर्ट ने कहा कि यह मामला “गंभीर में भी गंभीरतम अपराध” की श्रेणी में नहीं आता।
- फांसी की सजा केवल उन्हीं मामलों में दी जाती है, जब अपराध इतना जघन्य हो कि समाज में न्याय की भावना बनाए रखने के लिए इसका कोई दूसरा विकल्प न हो।
- जाति का संदर्भ:
- अदालत ने दोषी की पिछड़ी जाति और सामाजिक पृष्ठभूमि पर विचार किया, जो उसकी परिस्थितियों और सुधार की संभावना का आकलन करने में सहायक हो सकता है।
- यह निर्णय सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से पुनर्वास के सिद्धांत पर आधारित है।
- आजीवन कारावास का प्रावधान:
- दोषी को अब जीवनभर जेल में रहना होगा और ₹20,000 का जुर्माना भी भरना होगा।
सवाल और आलोचनाएँ:
- जाति का महत्व:
- कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि न्याय में जाति का संदर्भ क्यों लिया गया।
- आलोचकों का तर्क हो सकता है कि अपराध की सजा अपराध की प्रकृति और गंभीरता पर आधारित होनी चाहिए, न कि दोषी की सामाजिक पृष्ठभूमि पर।
- न्याय के प्रति संतुलन:
- बच्ची के परिवार और समाज के दृष्टिकोण से यह फैसला पीड़ित के लिए न्यायपूर्ण नहीं लग सकता, क्योंकि यह एक संवेदनशील और गंभीर अपराध है।
- सुधार की संभावना:
- कोर्ट का यह मानना कि दोषी का पुनर्वास हो सकता है, इस बात पर आधारित है कि अपराध के समय उसकी उम्र और सामाजिक स्थिति को देखते हुए वह सुधर सकता है।
समाज पर प्रभाव:
- यह निर्णय भारत की न्यायपालिका की पुनर्वास-प्रधान दृष्टिकोण को उजागर करता है, लेकिन इससे फांसी की सजा के औचित्य पर भी बहस शुरू हो सकती है।
- यह सवाल उठता है कि क्या ऐसे फैसले पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए पर्याप्त न्याय सुनिश्चित करते हैं, या समाज में अपराधियों के प्रति सहानुभूति का संदेश देते हैं।
क्या था मामला?
यह मामला छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव का है। यहाँ 2021 में दीपक बघेल नाम के एक शख्स अपने पास की एक 7 वर्षीय बच्ची को झांकी दिखाने के बहाने से ले गया था। वह उसके भाई को भी ले गया था। उसने बाद में उसके भाई को झांकी में ही छोड़ दिया जबकि बच्ची को सूनसान जगह ले गया।
यहाँ उसने जबरदस्ती बच्ची के साथ रेप किया। इसके बाद उसने बच्ची के सर पर एक भारी पत्थर मार कर हत्या कर दी। सबूत मिटाने के लिए उसने बच्ची के शव को ट्रेन की पटरियों पर फेंक दिया। इसके कारण उसका शव क्षत-विक्षत हो गया। बच्ची का रेप-हत्या करने के दीपक बघेल अपने घर से भाग गया।
बच्ची का शव मिलने के बाद उसके पिता ने एक FIR दर्ज करवाई थी। दीपक बघेल को इसके बाद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। उसके घर से पुलिस को बच्ची का ब्रेसलेट और उसकी खून लगी शर्ट मिली थी। हालाँकि, पुलिस से उसने पूछताछ में खुद के निर्दोष होने की बात कही और आरोप लगाया कि उसे फंसाया गया है।
पुलिस ने अपनी जाँच के बाद उसके खिलाफ अपहरण, रेप, हत्या और POCSO एक्ट की धाराओं में मामला दर्ज किया था। निचली अदालत में अधिकांश आरोप सही पाए आगे और यहाँ उसे मौत की सजा सुनाई गई। इसके साथ ही उस पर ₹20000 का जुर्माना लगाया गया।
निचली अदालत में जज ने इस मामले को गंभीर में भी गंभीरतम अपराध पाया और मौत की सजा को सही ठहराया। निचली अदालत ने इसके बाद मौत की सजा को अनुमति देने का मामला छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट भेजा था। इसी के साथ मौत की सजा समेत बाकी सजाओं के खिलाफ दीपक बघेल ने भी हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की थी।
हाई कोर्ट ने दोनों मामलों को एक साथ सुना। हाई कोर्ट के सामने दीपक बघेल ने दावा किया कि वह निर्दोष है और पुलिस इस मामले में सही सबूत नहीं पेश नहीं कर सकी है। दीपक बघेल ने जेल में अपने अच्छे आचरण के चलते फांसी की सजा हटाने की माँग भी की। हाई कोर्ट ने उसकी दलीलों को मानने से इनकार कर दिया लेकिन मौत की सजा को सही नहीं माना।