उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से सामने आई धर्मांतरण की खबरों ने सामाजिक और धार्मिक संगठनों को झकझोर कर रख दिया है। बीते पांच वर्षों में नेपाल सीमा से लगे इस क्षेत्र में लगभग 3000 लोगों के ईसाई धर्म में कन्वर्जन की खबरों ने गंभीर चिंता उत्पन्न की है। खासकर थारू जनजाति, जो इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में निवास करती है, ईसाई मिशनरियों के निशाने पर रही है। इस जनजाति को ऐतिहासिक रूप से महाराणा प्रताप के वंशजों में माना जाता है, और इनका गहरा सांस्कृतिक और पारंपरिक जुड़ाव सनातन धर्म से रहा है। लेकिन आर्थिक विपन्नता, शिक्षा की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव जैसे कारणों के चलते इन लोगों को प्रलोभनों और धोखे से धर्म परिवर्तन के जाल में फंसाया गया।
ईसाई मिशनरियों ने थारू समुदाय के लोगों को धर्म बदलने के लिए शिक्षा, चिकित्सा सुविधाएं, आर्थिक सहायता और जीवनशैली सुधार जैसे वादों का झांसा दिया। यह सुनियोजित प्रयास मिशनरी स्कूलों, स्थानीय एजेंटों और स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से किया गया, जिससे सामाजिक ताना-बाना प्रभावित हुआ। मिशनरियों द्वारा गांवों में सक्रिय प्रचार के चलते कई परिवारों ने अपना पारंपरिक धर्म छोड़ दिया।
लेकिन इस चिंताजनक स्थिति के बीच सकारात्मक पहल भी देखने को मिली है। सिख संगठनों और स्थानीय सनातन धर्म समर्थकों के प्रयासों से अब ‘घर वापसी’ का अभियान जोर पकड़ रहा है। विशेष रूप से ऑल इंडिया सिख पंजाबी वेलफेयर काउंसिल और लखनऊ गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी इस कार्य में आगे आई हैं। जरनैल सिंह (बैल्हा कमेटी गुरुद्वारा अध्यक्ष) और परमजीत सिंह (सचिव) के नेतृत्व में फरवरी 2025 में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें सैकड़ों थारू परिवारों ने अपनी मूल धार्मिक पहचान – सनातन धर्म को पुनः अपनाया।
हाल ही में राघवपुरी गांव में आयोजित एक समारोह में 61 परिवारों की विधिवत ‘घर वापसी’ कराई गई। हरपाल सिंह जग्गी, जो ऑल इंडिया सिख पंजाबी वेलफेयर काउंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, ने कहा कि यह अभियान केवल एक शुरुआत है, और मिशनरियों की गतिविधियों का शांतिपूर्ण और कानूनी तरीके से जवाब दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि अब तक करीब 1000 लोग सनातन धर्म में लौट चुके हैं, और इस प्रक्रिया के दस्तावेजी साक्ष्य भी मौजूद हैं।
यह पूरा घटनाक्रम यह दर्शाता है कि धार्मिक पहचान के मुद्दे केवल आस्था तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परतों से भी गहराई से जुड़े हुए हैं। जहां एक ओर मिशनरी एजेंडे स्थानीय समाज को तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्थानीय संगठन और धार्मिक समुदाय मिलकर भारत की परंपरागत सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने के लिए प्रयासरत हैं। यह मामला सरकार, प्रशासन और समाज तीनों के लिए एक चेतावनी है कि केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है, जमीनी स्तर पर जागरूकता और सहायता भी उतनी ही जरूरी है।
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