अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे की बहाली की मांग पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया ऐतिहासिक फैसला देश के शैक्षिक और कानूनी परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के अजीज बाशा फैसले को पलटते हुए यह स्पष्ट किया कि AMU का अल्पसंख्यक संस्थान होना या नहीं होना, यह अब तीन जजों की बेंच द्वारा तय किया जाएगा।
इस फैसले से पहले, 1967 का अजीज बाशा निर्णय यह कहता था कि AMU अल्पसंख्यक दर्जे का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि यह एक कानून द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय है। उस समय का फैसला यह भी कहता था कि चूंकि AMU को कानूनी रूप से स्थापित किया गया था, इसे अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में पहचान नहीं दी जा सकती। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए यह मुद्दा तीन जजों की बेंच को सौंप दिया है, जो AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर एक नया फैसला सुनाएगी।
The earlier tweet on the Aligarh Muslim University minority status verdict stands deleted. pic.twitter.com/MEX8iM8ncx
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सुप्रीम कोर्ट का फैसला और उसका महत्व:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कानूनी और शैक्षिक परिप्रेक्ष्य से अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह निर्णय सिर्फ AMU के भविष्य को ही प्रभावित नहीं करेगा, बल्कि अल्पसंख्यक संस्थानों से जुड़ी कानूनी परिभाषा और उन पर लागू होने वाले कानूनी अधिकारों को भी स्पष्ट करेगा।
- AMU का संस्थापक इतिहास: कोर्ट ने यह भी कहा है कि AMU को अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित किया गया था, और इसे साबित करने की जिम्मेदारी AMU पर होगी। इसका मतलब यह है कि विश्वविद्यालय को यह साबित करना होगा कि इसे वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था, ताकि इसे अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता दी जा सके।
- 1967 का अजीज बाशा फैसला: यह फैसला विशेष रूप से अहम था, क्योंकि यह AMU को अल्पसंख्यक दर्जे से वंचित करने वाला था। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलट दिया है, और इस फैसले को चुनौती देने वाली याचिका को फिर से सुनने का फैसला लिया है।
- तीन जजों की बेंच: इस मामले में अब आगे की सुनवाई तीन जजों की बेंच करेगी, जो तय करेगी कि AMU को अल्पसंख्यक दर्जा मिल सकता है या नहीं। इस फैसले का असर न केवल AMU बल्कि पूरे देश में अल्पसंख्यक संस्थानों की स्थिति पर पड़ेगा, क्योंकि यह तय करेगा कि ऐसी संस्थाओं को किस प्रकार की विशेष कानूनी और शैक्षिक स्वतंत्रताएं मिलनी चाहिए।
Supreme Court overrules 1967 verdict on Aligarh Muslim University minority status
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क्यों है यह फैसला महत्वपूर्ण?
- संविधानिक अधिकारों का संरक्षण: यह फैसला देश में संविधानिक अधिकारों के संरक्षण को लेकर महत्वपूर्ण हो सकता है। यदि AMU को अल्पसंख्यक दर्जा मिलता है, तो यह संस्थान को अपने अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों के संरक्षण में विशेष स्वतंत्रता और सुविधा दे सकता है।
- शैक्षिक संस्थानों की स्वतंत्रता: यह मामला सिर्फ एक विश्वविद्यालय का नहीं है, बल्कि यह पूरे देश के शैक्षिक संस्थानों की स्वतंत्रता और विशेषाधिकारों को प्रभावित करेगा। यदि AMU को अल्पसंख्यक दर्जा मिलता है, तो इससे अन्य अल्पसंख्यक संस्थानों के लिए भी दिशा-निर्देश स्थापित हो सकते हैं।
- समाज में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की स्थिति: यह फैसला अल्पसंख्यकों के अधिकारों और उनके संरक्षण को लेकर भी महत्वपूर्ण हो सकता है। यदि कोर्ट AMU को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता देता है, तो इससे देश भर में अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की स्थिति को लेकर नई चर्चाएं हो सकती हैं।
अनुच्छेद 30 में मिले अधिकार संपूर्ण नहीं- CJI
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि धार्मिक समुदाय संस्थान बना सकते हैं लेकिन चला नहीं सकते। अनुच्छेद 30 में मिले अधिकार संपूर्ण नहीं है। धार्मिक समुदाय को संस्थान चलाने का असीमित अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 30 (1) को कमजोर नहीं कर सकते। अल्पसंख्यक संस्थाओं को भी रेगुलेट कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का 4:3 का फैसला इस मामले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर दिया गया है। मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने बहुमत के साथ संविधान पीठ का निर्णय सुनाया, जिसमें AMU के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित 1967 के अजीज बाशा फैसले को पलटते हुए इसे तीन जजों की बेंच को सौंपने की बात कही है।
Supreme Court overrules by 4:3 S Azeez Basha versus Union of India case which in 1967 held that since Aligarh Muslim University was a Central university, it cannot be considered a minority institution.
Supreme Court says issue of AMU minority status to be decided by a regular… pic.twitter.com/YInqFocwkJ
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4:3 का फैसला और असहमतियाँ:
मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने यह भी स्पष्ट किया कि यह 4:3 का फैसला है, जिसमें बहुमत ने फैसला दिया है और तीन जजों ने असहमतियाँ दर्ज की हैं। जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस शर्मा ने अपने असहमत निर्णय में इस मामले को लेकर अलग राय व्यक्त की है।
इसका मतलब है कि, जबकि बहुमत ने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर तीन जजों की बेंच से निर्णय लेने का आदेश दिया है, बाकी तीन जजों ने इस फैसले से असहमत रहते हुए इसे चुनौती दी है।
मुख्य न्यायाधीश के विचार:
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस मामले में कुछ महत्वपूर्ण कानूनी बिंदुओं पर विचार किया, जिनमें से एक था:
- धार्मिक समुदायों द्वारा संस्थान बनाना: उन्होंने कहा कि धार्मिक समुदाय संस्थान बना सकते हैं, लेकिन उसे निष्पक्ष रूप से संचालित नहीं कर सकते। यानी, यदि किसी धार्मिक समुदाय द्वारा किसी संस्थान की स्थापना की जाती है, तो वह केवल संस्थान बना सकता है, लेकिन संस्थान को समाज के सभी हिस्सों के लिए खुला और निष्पक्ष बनाना जरूरी है।
- अनुच्छेद 30 का क्षेत्र: सीजेआई चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 30 में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी शैक्षिक संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह अधिकार पूरे अधिकार नहीं हैं। इसका मतलब है कि यह अधिकार सीमित हैं और उन पर कुछ शर्तें लागू हो सकती हैं।
Chief Justice of India DY Chandrachud heading the 7-judge bench says there are four judgements in the case. Four judges give majority verdict, while three judges pass dissent judgement. https://t.co/eK1hDoghik
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मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की संविधानिक बेंच ने ये फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आगे चलकर यह तय होगा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप मे दर्जा दिया जाए या नहीं।