सुप्रीम कोर्ट का 23 मई 2025 का यह फैसला भारत के ऊर्जा क्षेत्र, खासकर बिजली उत्पादकों के लिए एक मील का पत्थर है।
मामले की पृष्ठभूमि
- पक्षकार:
🔹 अदाणी पावर राजस्थान लिमिटेड (APRL) — बिजली उत्पादक कंपनी
🔹 जयपुर विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (JVVNL) और अन्य राजस्थान की डिस्कॉम्स — बिजली खरीदार - विवाद का मूल:
- दोनों के बीच 1200 मेगावाट बिजली आपूर्ति का PPA (Power Purchase Agreement) हुआ था, जिसमें निश्चित टैरिफ (fixed tariff) तय था।
- 2017 में कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) ने कोयले पर ₹50/टन का “निकासी सुविधा शुल्क (Evacuation Facility Charges – EFC)” लगाया।
- इससे अदाणी पावर की लागत बढ़ गई और उन्होंने इसे “कानून में बदलाव (Change in Law)” माना और मुआवजा (compensation) माँगा।
कानूनी यात्रा
- CIL की अधिसूचना:
- 19 दिसंबर 2017 को जारी की गई EFC अधिसूचना
- अदाणी की मांग:
- मुआवजा + विलंब से भुगतान पर Late Payment Surcharge (LPS) के लिए क्लेम
- APTEL का फैसला (अप्रैल 2024):
- APTEL ने माना कि EFC “कानून में बदलाव” के दायरे में आता है
- अदाणी को मुआवजे का हक है
- JVVNL की सुप्रीम कोर्ट में अपील:
- APTEL के फैसले को चुनौती दी गई
- सुप्रीम कोर्ट का फैसला (23 मई 2025):
- APTEL के आदेश को बरकरार रखा
- अदाणी पावर को मुआवजा और LPS लागत वसूलने की अनुमति दी
- “Change in Law” क्लॉज की व्याख्या को स्पष्टता और शक्ति मिली
महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई सरकारी अधिसूचना/विनियामक परिवर्तन बिजली उत्पादक की लागत बढ़ाता है, तो वह PPA के तहत मुआवजे का हकदार होगा।
- Late Payment Surcharge (LPS) भी वास्तविक लागत का हिस्सा माना गया।
फैसले के प्रभाव
क्षेत्र | प्रभाव |
---|---|
बिजली उत्पादक | कानूनी सुरक्षा बढ़ी; भविष्य में लागत वृद्धि पर मुआवजे की उम्मीद |
PPA समझौते | “Change in Law” क्लॉज की वैधानिक व्याख्या मजबूत हुई |
वितरण कंपनियां (DISCOMs) | उन्हें मुआवजा देना पड़ेगा; भविष्य में अनुबंध शर्तों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है |
उपभोक्ता (संभावित) | दीर्घकाल में टैरिफ में वृद्धि हो सकती है (यदि लागत का बोझ पास ऑन किया जाए) |
न्यायिक विवेक का सार
“जहां लागत में वृद्धि राज्य के निर्णय या विनियामक परिवर्तनों से हो रही है, वहां बिजली उत्पादक के लिए मुआवजा न्यायोचित और कानूनी रूप से उचित है।”
— सुप्रीम कोर्ट
निष्कर्ष
इस फैसले से बिजली उत्पादक कंपनियों को राहत मिली है और भविष्य में ऐसे विवादों में एक महत्वपूर्ण मिसाल (precedent) स्थापित हुई है। यह भारत में बिजली क्षेत्र के लिए कॉन्ट्रैक्ट इकोनॉमिक्स और विधिक पारदर्शिता की दिशा में एक बड़ा कदम है।