जस्टिस यशवंत वर्मा Vs जस्टिस शेखर यादव
इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो न्यायाधीशों—जस्टिस शेखर यादव और जस्टिस यशवंत वर्मा—के खिलाफ लगे आरोपों ने न्यायिक प्रणाली और संसद के बीच की प्रक्रिया को जटिल मोड़ पर पहुंचा दिया है। एक ओर जस्टिस शेखर यादव पर वीएचपी के एक कार्यक्रम में हेट स्पीच देने का आरोप है, वहीं दूसरी ओर जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास में आग लगने के बाद भारी मात्रा में जली हुई नकदी मिलने का मामला सामने आया। हालांकि दोनों मामलों में कार्रवाई की प्रक्रिया अलग रही। जस्टिस यादव के खिलाफ 13 दिसंबर को कपिल सिब्बल के नेतृत्व में 55 सांसदों ने राज्यसभा सभापति को महाभियोग प्रस्ताव सौंपा, जिससे इन-हाउस जांच की संभावना रुक गई, क्योंकि जजेज इन्क्वायरी एक्ट के तहत जब कोई प्रस्ताव राज्यसभा अध्यक्ष के समक्ष लंबित होता है, तो सुप्रीम कोर्ट या कॉलेजियम जांच शुरू नहीं कर सकते।
वहीं जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद में कोई प्रस्ताव न आने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः आंतरिक जांच शुरू की। कॉलेजियम ने तीन सदस्यीय समिति गठित कर जांच कराई और रिपोर्ट में पुष्टि हुई कि जस्टिस वर्मा के घर से जली हुई नकदी मिली थी। इसके आधार पर तत्कालीन CJI संजीव खन्ना ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजकर उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव शुरू करने की सिफारिश की, जिसे आगामी संसद सत्र में पेश किए जाने की तैयारी है।
जस्टिस यादव के मामले में प्रक्रिया तब और जटिल हो गई जब उनके खिलाफ नोटिस में तकनीकी खामियां पाई गईं—जैसे आठ सांसदों के हस्ताक्षर मेल नहीं खाना और तीन के दस्तखत की पहचान न हो पाना। राज्यसभा सचिवालय ने मार्च में इस प्रस्ताव की जानकारी सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को दी, जिससे मामला संसद के अधीन हो गया और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका सीमित रह गई। कॉलेजियम ने भाषण की जानकारी हाईकोर्ट से मांगी थी और जस्टिस यादव 17 दिसंबर को कॉलेजियम के सामने पेश भी हुए थे, लेकिन उनका स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं पाया गया।
इस तरह जस्टिस वर्मा के खिलाफ जहां सुप्रीम कोर्ट की पहल से संसद की कार्रवाई की दिशा साफ होती दिख रही है, वहीं जस्टिस यादव का मामला संसद में प्रक्रियात्मक उलझनों और तकनीकी खामियों के चलते अधर में लटका हुआ है।