मद्रास हाई कोर्ट ने हाल ही में LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जो समाज में समावेशिता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। यह मामला एक 25 वर्षीय लेस्बियन महिला से जुड़ा था, जिसे उसके परिवार ने उसकी इच्छा के विरुद्ध उसकी पार्टनर से अलग कर दिया था और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था। इस मामले में उसकी पार्टनर ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) दायर की थी, जिसमें कहा गया कि महिला को जबरदस्ती हिरासत में रखा गया है। इस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन और जस्टिस वी. लक्ष्मीनारायणन की पीठ ने 22 मई को महिला को रिहा करने का आदेश दिया और कहा कि वह स्वतंत्र है और अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुन सकती है।
कोर्ट ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक विवाह को भले ही अभी कानूनी मान्यता न दी गई हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि समलैंगिक लोग परिवार नहीं बना सकते। हाई कोर्ट ने कहा कि “परिवार” का मतलब केवल विवाह से बने रिश्तों तक सीमित नहीं है। LGBTQIA+ समुदाय में ‘चुने हुए परिवार’ (chosen family) की अवधारणा को अब कानून में भी मान्यता प्राप्त है, और यदि दो बालिग अपनी मर्जी से एक साथ रहना चाहें, तो वे बिना शादी के भी एक परिवार के रूप में रह सकते हैं।
कोर्ट ने इस फैसले में जस्टिस लीला सेठ का भी उल्लेख किया, जो न केवल भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस थीं, बल्कि उन्होंने अपने बेटे की समलैंगिकता को सहजता से स्वीकार किया था। जजों ने कहा कि सभी माता-पिता जस्टिस लीला सेठ जैसे सहिष्णु नहीं होते। उन्होंने यह भी बताया कि इस महिला की मां अपनी बेटी को पारंपरिक तरीके से शादी करता देखना चाहती हैं, लेकिन अदालत ने यह स्पष्ट किया कि बेटी बालिग है और उसे अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का पूरा अधिकार है। कोर्ट ने महिला की मां को यह समझाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं मानीं।
एक और महत्वपूर्ण बात जो कोर्ट ने उठाई वह थी ‘क्वीर’ शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति। कोर्ट ने कहा कि यह शब्द सामान्यतः ‘अजीब’ या ‘अनोखा’ अर्थ देता है, जबकि किसी समलैंगिक व्यक्ति की यौनिकता पूरी तरह से स्वाभाविक और सामान्य होती है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों को ‘क्वीर’ कहकर उन्हें अलग या असामान्य बताना गलत है।
कोर्ट ने इस मामले में पुलिस की भूमिका पर भी नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि पुलिस ने पूरी असंवेदनशीलता से काम किया और महिला को जबरदस्ती उसके माता-पिता के साथ भेज दिया, जो कि उसकी निजी स्वतंत्रता का उल्लंघन था। अदालत ने पुलिस की निष्क्रियता की निंदा करते हुए यह निर्देश दिया कि LGBTQIA+ समुदाय से संबंधित किसी भी शिकायत पर त्वरित और संवेदनशीलता से कार्रवाई की जाए।
अंत में, कोर्ट ने उस महिला और उसकी पार्टनर को सुरक्षा देने का निर्देश दिया और यह सुनिश्चित करने को कहा कि कोई भी उनकी निजता या जीवन के अधिकार में हस्तक्षेप न करे। यह फैसला LGBTQIA+ समुदाय के लिए न केवल एक कानूनी जीत है, बल्कि सामाजिक स्वीकृति और व्यक्तिगत अधिकारों की दिशा में एक प्रेरणादायक उदाहरण भी बन गया है। अदालत ने दो टूक कहा कि हर व्यक्ति को अपनी पसंद के अनुसार जीवन जीने का संवैधानिक अधिकार है और किसी को भी इसमें बाधा डालने का हक नहीं है।