जाकिर हुसैन साहब की सांसें भले रुक गईं लेकिन उनके तबले की थाप इस जहां में सदियों तक गूंजती रहेगी. 73 बरस की उम्र में वो दुनिया को अलविदा कह गए. मौसिकी की दुनिया में उनके तबले की थाप एक अलहदा पहचान रखती थी. तबले पर उनके प्रयोग अचंभित करते थे. तबले पर महादेव का डमरू और शंखनाद …यूं कहें तो मां शारदे के सच्चे उपासक थे जाकिर साहब. वो तबले को आम आदमी से जोड़ने वाले बेजोड़ फनकार थे.
जाकिर साहब अपनी कला की ऐसी विरासत छोड़ गए, जो हमेशा हमारी यादों में जिंदा रहेंगी. उनकी उंगलियां जब तबले पर थिरकती थीं, तो सिर्फ सुर नहीं, पूरी कहानियां जन्म लेती थीं. तबले पर डमरू की नाद और शंख की मधुर आवाज उनकी उस्तादी थी. कौम से भले मुसलमान रहे हों पर नाद को हमेशा शिव से जोड़ते रहे. सरस्वती की महिमा गाते रहे. संगीत नाटक अकादमी, ग्रैमी, पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण पाने वाले जाकिर हुसैन तबला के जादूगर थे. 37 साल की उम्र में पद्मश्री पाने वाले वो हिंदुस्तान के पहले कलाकार थे.
मां शारदे के सच्चे उपासक थे जाकिर हुसैन साहब
जाकिर हुसैन साहब जात-पात से ऊपर उठकर देश को एक सुर में सजाने वाले उस्ताद थे. उनके तबले की थाप आत्मा की गहराई तक उतर जाती थी. ऐसा लगता था तबला खुद आत्ममुग्ध होकर बज रहा है. जब वो पैदा हुए थे तो उनके पिताजी उनके कान में प्रार्थना की जगह तबले की ताल सुनाया करते थे. इसका खुलासा जाकिर साहब ने खुद एक इंटरव्यू में किया था. उन्होंने कहा था, मैं जब पैदा हुआ तो मेरे पिताजी ने मेरे कान में प्रार्थना की जगह तबले की ताल सुनाई. बोले यही मेरी प्रार्थना है. मैं देवी सरस्वती का उपासक हूं.’
शास्त्रीय संगीत और तबला को विश्व मंच पर नई ऊंचाइयों तक पहुँचाने वाले उस्ताद ज़ाकिर हुसैन को 1988 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था, और वह हिंदुस्तान के सबसे कम उम्र के कलाकार थे जिन्हें इस प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाज़ा गया। (1/2)#GoldenFrames
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जाकिर साहब को किसने कहा पहली बार ‘उस्ताद’
तबले की थाप से दुनिया का दिल जीतने वाले जाकिर हुसैन साहब को 1988 में पद्मश्री मिला था. इस समय उनकी उम्र 37 साल थी. इस उम्र में वह यह सम्मान पाने वाले हिंदुस्तान के सबसे कम उम्र के कलाकार थे. इसका भी एक किस्सा है, जिसका खुलासा उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में किया था. इस इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि पहली बार उन्हें किसने ‘उस्ताद’ कहा और उन्हें पद्मश्री के बारे में कैसे पता चला. जाकिर साहब से जब ये पूछा गया कि 37 साल की उम्र में आपको पद्मश्री सम्मान कैसा अनुभव था?
इस पर उन्होंने कहा, ‘वो अनुभव मेरे लिए बहुत ही खास जगह रखता है. उसका कारण ये है कि जब वो अवॉर्ड अनाउंस हुआ था, उस वक्त सबेरे के करीब चार बजे थे. कोई पेपर लेकर आया था और मैं जेवियर्स कॉलेज में पंडित रविशंकर जी के साथ बजा रहा था और सामने ही फ्रंट रूम में मेरे पिताजी उस्ताद अल्लारखा खां बैठे हुए थे. तो मेरे ख्याल से उनको किसी ने कान में कहा कि पेपर मैं देख रहा हूं कि आज सवेरे का उसमें ये ये जिक्र हुआ है तो वह बहुत खुश हुए और उन्होंने किसी तरह से रविशंकर जी को मैसेज पहुंचाया स्टेज पे तो फिर पंडित जी ने उस वक्त अनाउंसमेंट की स्टेज पर तो उन्होंने पहली बार मुझे ‘उस्ताद’ कहा कि भई उस्ताद जाकिर हुसैन को ये अवार्ड दिया गया है. उस वक्त मेरे दो खास इंस्पिरेशन वहां थे. उन दोनों के होते ये अनाउंसमेंट हो तो मेरे ये बड़ी बात थी.’
11 साल की उम्र में अमेरिका में पहला कॉन्सर्ट
अपने पिता उस्ताद अल्ला रक्खा खां के पदचिन्हों पर चलते हुए जाकिर साहब ने अपनी एक अलग पहचान बनाई. महज 11 साल की उम्र में उन्होंने अमेरिका में पहला कॉन्सर्ट किया था. कॉन्सर्ट कहीं भी हो, किसी भी बैंड का हो..जाकिर साहब हर बैंड के हीरो होते थे. उन्हें अपने करियर में पांच ग्रैमी अवार्ड मिले. इनमें से तीन तो साल की शुरुआत में 66वें ग्रैमी पुरस्कार में मिले थे. पिछले साल उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा गया था. 16 दिसंबर को अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में उन्होंने अंतिम सांस ली.
अलविदा जाकिर हुसैन साहब…यादें जिंदा रहेंगी
जाकिर साहब ने जिंदगी के जितने बसंत देखे वह बेहद सादगी भरे थे. उनकी छवि बेहद सौम्य और शालीन थी. वह आम जीवन में बेहद सहज और सरल थे. चलते-चलते…तेरे न होने का शिकवा तुझसे कैसे लिखूं, आज मैं भी गमगीन हूं और मेरी कलम भी. तेरी सादगी को निहारने का दिल करता है, तमाम उम्र तेरे नाम करने का दिल करता है. अलविदा जाकिर हुसैन साहब…यादें जिंदा रहेंगी.