देश के पूर्व प्रधानमंत्री, भाजपा के पूर्व मुखिया और रामरथ यात्रा के नायक भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी शुक्रवार (8 नवम्बर, 2024) को 97 साल हो गए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जन्मदिन की बधाई दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उनका यह जन्मदिन इस बार इसलिए विशेष हैं क्योंकि इसी साल उन्हें भारत रत्न दिया गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रमुख स्टेट्समेन में एक करार दिया है और कहा है कि उन्होंने देश के विकास के बड़ा योगदान दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और बाकी नेताओं ने भी आडवाणी के जन्म दिन पर बधाई दी है।
लालकृष्ण आडवाणी भारत में राम मंदिर आंदोलन और भाजपा के प्रखर दक्षिणपंथी अवतार के लिए हमेशा ही जाने जाते रहेंगे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर देश को कॉन्ग्रेस के अलावा एक राष्ट्रव्यापी मजबूत विकल्प दिया, जो कि वामपंथ जैसी विचारधारा 5 दशक में भी नहीं कर पाई थी।
लालकृष्ण आडवाणी का जीवन भी उत्तर चढ़ाव से भरा रहा है। वह अब उन कुछ गिने चुने नेताओं में से हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया है और सावरकर तथा गाँधी जैसे महान लोगों के समय के साक्षी रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी के जीवन परिचय में फ़िल्में-किताबें, अध्यात्म और हिंदुत्व की राजनीति, सब कुछ रही है।
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कराची में जन्म, अंग्रेजी शिक्षा, पड़ोसी पारसी
लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति के एक प्रमुख नेता और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। उनका जन्म 8 नवंबर 1927 को कराची (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। आडवाणी का परिवार सिंध के आमिल समाज से ताल्लुक रखता था, जो कि सिंधी हिन्दू समुदाय की एक उपशाखा है और यह समाज वैश्य समुदाय से जुड़ा हुआ है।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
लालकृष्ण आडवाणी के परिवार में उनके अलावा उनके माता-पिता और एक बहन थीं। उनके जन्म के तुरंत बाद उनके परिवार ने जमशेद क्वार्टर्स मोहल्ले में स्थित ‘लाल कॉटेज’ नामक एकमंजिला बंगला बनवाया था। यह मोहल्ला एक समृद्ध पारसी समुदाय के इलाके में था, और वहां रहने वाले लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न थे। आडवाणी के दादा धरमदास खूबचंद आडवाणी संस्कृत के विद्वान और एक सरकारी हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक थे, जबकि उनके पिता किशिनचंद आडवाणी एक व्यापारी थे।
शिक्षा और प्रारंभिक जीवन
लालकृष्ण आडवाणी की शिक्षा सेंट पैट्रिक्स हाईस्कूल फॉर बॉयज में हुई थी, जो कराची में स्थित था और जिसे आयरलैंड से आए कैथोलिक मिशनरियों ने 1845 में स्थापित किया था। इस स्कूल में एक चर्च भी था। आडवाणी ने 1936 से 1942 तक इस स्कूल में पढ़ाई की। इस स्कूल के अन्य प्रसिद्ध पूर्व छात्र पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी थे।
सिंधी हिन्दू आमिल समाज का प्रमुख रूप से संबंध लोहानो वंश से था और यह समाज नानकपंथी था, जिसका सिख धर्म से गहरा संबंध था। इस समाज का ऐतिहासिक रूप से प्रशासन में भी प्रभाव था, और कई परिवारों का संबंध सरकारी नौकरियों से था।
राजनीतिक यात्रा की शुरुआत
आडवाणी के बचपन और युवा जीवन में जो धार्मिक और सामाजिक माहौल था, उसने उनके विचारों को आकार दिया। विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आ गया, और इस दौरान उनका राजनीतिक दृष्टिकोण भी विकसित हुआ। बाद में, आडवाणी भारतीय राजनीति में एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) के साथ। वे अयोध्या आंदोलन और राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख चेहरे रहे, जिसने भारतीय राजनीति में एक नई धारा को जन्म दिया।
लालकृष्ण आडवाणी का जीवन और उनका योगदान भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है, और उनका प्रभाव भारतीय जनसंघ (जो बाद में BJP बन गया) और भारतीय राजनीति में अविस्मरणीय है।
लालकृष्ण आडवाणी का जीवन न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रेरणादायक है, बल्कि उनके बचपन और युवावस्था के अनुभव भी बेहद रोचक और दिलचस्प हैं। उनके जीवन के शुरुआती दिनों में सिनेमा और अंग्रेजी किताबों से उनके गहरे लगाव का जिक्र उनकी आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन’ में मिलता है।
सिनेमा का शौक और फ़िल्मों से लगाव
आडवाणी ने बचपन में कई अंग्रेजी फिल्में देखी थीं, और उनका सिनेमा के प्रति लगाव खासा था। वे अक्सर अपने सुंदर मामा के साथ फिल्में देखने जाते थे। उनके जीवन में एक ख़ास फिल्म का जिक्र है ‘फेंकेंस्टाइन’ (1931), जो एक हॉरर फिल्म थी और मैरी शेली के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित थी। इस फिल्म को यूनिवर्सल स्टूडियोज ने बनाया था और यह फिल्म हॉरर शैली में मील का पत्थर मानी जाती है।
इसके बाद, आडवाणी का जीवन एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक 1942 से 1956 के बीच कोई फिल्म नहीं देखी। लेकिन, बाद में जब वे मुंबई गए और अपने सुंदर मामा से मिले, तो उन्होंने फिर से ‘हाउस ऑफ वेक्स’ नामक एक थ्रीडी मिस्ट्री हॉरर फिल्म देखी। इस फिल्म का जिक्र आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में किया है, और यह उनकी फिल्मों के प्रति रुचि को पुनः जागृत करने वाला पल था।
किताबों से प्रेम
लालकृष्ण आडवाणी का किताबों से प्रेम उनके कॉलेज के दिनों में और भी बढ़ा। उन्होंने 1942 में हैदराबाद (जो अब पाकिस्तान में है) स्थित दयाराम गिदूमल कॉलेज में एडमिशन लिया और वहाँ की लाइब्रेरी में समय बिताते हुए बहुत सारी किताबें पढ़ीं। खासतौर पर उनकी रुचि विदेशी लेखकों के कार्यों में थी।
आडवाणी ने जूल्स वर्न के उपन्यासों को बहुत पढ़ा, जिनमें ‘जर्नी टू द सेंटर ऑफ द अर्थ’, ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’, और ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज’ जैसी किताबें शामिल थीं। इसके अलावा, उन्होंने चार्ल्स डिकेंस का ‘A Tale of Two Cities’ और एलेक्जेंडर ड्यूमा का ‘The Three Musketeers’ भी पढ़ा था। इन किताबों में रोमांचक यात्रा कथाएँ, ऐतिहासिक संदर्भ, और साहसिक पात्र थे, जो उनकी कल्पना और दृष्टिकोण को विस्तारित करने में मददगार साबित हुए।
क्रिकेट में रुचि
इसके साथ ही, आडवाणी को क्रिकेट में भी रुचि थी। क्रिकेट उनके जीवन का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा था, और उनका इस खेल के प्रति प्रेम उनकी युवावस्था में ही विकसित हुआ था। हालांकि क्रिकेट पर उनके विचार और योगदान की चर्चा कम रही है, लेकिन उनके जीवन के अन्य पहलुओं की तरह यह भी उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा था।
निचोड़
लालकृष्ण आडवाणी का यह सिनेमा और साहित्य से प्रेम उनके जीवन की विविधता को दर्शाता है। उनके शुरुआती वर्षों में फिल्में देखने और किताबों का अध्ययन करने से उनके मानसिक और बौद्धिक विकास पर असर पड़ा, जो बाद में उनके राजनीतिक जीवन में भी दिखा। इन अनुभवों ने आडवाणी को एक ऐसा दृष्टिकोण दिया, जिससे उन्होंने भारतीय राजनीति को एक नए दृष्टिकोण से समझा और उसे आकार दिया।
लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में राजनीति में आने की नींव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ने के समय पड़ी। उनकी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत 14 वर्ष की आयु में हुई, जब उन्होंने RSS से जुड़ने का फैसला किया। यह जुड़ाव एक दोस्त के माध्यम से हुआ था, और इसके बाद उनका जीवन पूरी तरह से भारतीय राजनीति और राष्ट्रवाद के प्रति समर्पित हो गया।
RSS से जुड़ाव और मार्गदर्शन
आडवाणी का RSS से जुड़ाव बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह संगठन उनके जीवन के दिशा निर्धारण में अहम भूमिका निभाने वाला साबित हुआ। RSS के माध्यम से आडवाणी की मुलाकात हुई राजपाल पुरी से, जो उस समय के पूर्णकालिक प्रांत प्रचारक थे और आडवाणी के जीवन के शुरुआती मार्गदर्शक बने। राजपाल पुरी के मार्गदर्शन में आडवाणी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को समझा और धीरे-धीरे उनका झुकाव राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की ओर बढ़ता गया।
द्विराष्ट्र सिद्धांत और विभाजन की भावना
आडवाणी ने RSS में रहते हुए भारतीय राजनीति के कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार किया, जिनमें द्विराष्ट्र सिद्धांत प्रमुख था। यह सिद्धांत मुस्लिम नेताओं द्वारा अलग इस्लामी राष्ट्र की मांग के संदर्भ में था, जिसने विभाजन को जन्म दिया। आडवाणी ने इस सिद्धांत को समझने और उसके परिणामों पर विचार करते हुए महसूस किया कि यह विभाजन भारतीय समाज के लिए कितना खतरनाक था। विभाजन के विचार से ही वे हैरान हो उठे थे, क्योंकि इससे एकता और अखंडता का संकट उत्पन्न हो रहा था।
ऐतिहासिक और राष्ट्रवादी विचार
इस दौरान, आडवाणी ने छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, और गुरु गोविंद सिंह जैसे महान भारतीय नायकों के बारे में पुस्तकें पढ़ी। इन पुस्तकों ने उन्हें भारतीय इतिहास की समृद्ध परंपरा और वीरता से परिचित कराया। आडवाणी के लिए ये ऐतिहासिक नायक प्रेरणा का स्रोत बने, और उनकी विचारधारा में भारतीयता, राष्ट्रीय एकता, और राष्ट्रवाद के प्रति आस्था और दृढ़ हो गई।
वीर सावरकर से मुलाकात
आडवाणी की राजनीतिक और राष्ट्रीय विचारधारा को और मजबूत करने में वीर विनायक दामोदर सावरकर का भी महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने सावरकर की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक को पढ़ा, जिससे उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास और सावरकर के विचारों के बारे में गहरी समझ मिली।
नवंबर 1947 में आडवाणी ने स्वयं वीर सावरकर से मुलाकात की। यह मुलाकात मुंबई स्थित उनके आवास पर हुई, और इसमें विभाजन पर गहरी चर्चा हुई। सावरकर से इस चर्चा ने आडवाणी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और विभाजन के संदर्भ में एक नया दृष्टिकोण दिया।
राष्ट्रीयता और राजनीति में आडवाणी का झुकाव
RSS में रहते हुए आडवाणी का झुकाव राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति के प्रति गहरे आदर की ओर बढ़ता गया। यही समय था जब आडवाणी ने अपने राजनीतिक जीवन के लिए आदर्श और प्रेरणा प्राप्त की। वे भारतीय समाज को एकजुट करने और उसकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के पक्षधर बन गए, और यही विचार उनके बाद के जीवन में उनकी राजनीतिक कार्यशैली और दृष्टिकोण का मूल बन गए।
आडवाणी के लिए यह आरंभिक शिक्षा एक ऐसे मार्ग पर चलने का आधार बनी, जिसने उन्हें बाद में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के एक अग्रणी नेता के रूप में स्थापित किया और वे भारतीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। उनके जीवन के ये शुरुआती अनुभव और विचार न केवल उनके राजनीतिक दृष्टिकोण को आकार देते हैं, बल्कि भारतीय राजनीति में उनके योगदान की नींव भी बने।
देश का बँटवारा और मुंबई में जीवन की फिर से शुरुआत
लालकृष्ण आडवाणी और उनका परिवार 1947 के बँटवारे में भारत चला आया। यहाँ वह मुंबई में आकर बसे। उनके पिता ने यहाँ फिर से व्यापार करना चालू किया जबकि आडवाणी इस दौरान संघ के कराची क्षेत्र के प्रचारक के तौर पर संगठन के काम में तल्लीन हो गए।
1947 से लेकर 1951 के के बीच लालकृष्ण आडवाणी राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में RSS का काम करते रहे। इसके बाद जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई, तो वह उसके पहले कुछ सदस्यों में से एक थे। आडवाणी 1957 आते-आते पार्टी के महासचिव बन चुके थे और बाद में वह दिल्ली जनसंघ के अध्यक्ष भी बने।
इस दौरान उनकी नजदीकी अटल बिहारी वाजपेयी से बढ़ी। वह वाजपेयी और बाकी नेताओं को उनके संसदीय कामों में मदद करते थे। आडवाणी 1970 तक दिल्ली की राजनीति में सक्रिय रहे। वह यहाँ के स्थानीय निकाय के मुखिया भी रहे। 1970 में वह पहली बार दिल्ली से राज्यसभा पहुँचे। उन्हें इंदिरा गाँधी सरकार में आपातकाल के विरोध के चलते जेल में भी डाला गया।
1977 में जब देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार आई तो वह उसमें सूचना प्रसारण मामलों के कैबिनेट मंत्री बने। 1980 आते-आते जब स्पष्ट हो गया कि समाजवादी देश को कॉन्ग्रेस के सामने एक विकल्प नहीं दे सकते तो उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर भाजपा की नीँव रखी।
RSS का प्रचारक बना हिंदुत्व का नायक
लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के 1988 तक दो बार अध्यक्ष बन चुके थे। इसी दौरान देश में राम मंदिर आंदोलन तेज हो रहा था। अब तक सौम्य स्वभाव के माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने इस मंदिर आंदोलन को समर्थन देने का फैसला लिया। उन्होंने इसके लिए रामरथ यात्रा का ऐलान किया।
यह यात्रा 25 सितम्बर को सोमनाथ से निकली थी और इसको अलग-अलग प्रदेशों से होते हुए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या पहुँचना था। उनका रामरथ जहाँ से गुजरता, उसकी धूल लोग माथे में लगाते। रथ के पीछे हिन्दुओं का रेला चलता। लोग एक ही बात रटते, “लाठी-गोली खाएँगे-मंदिर वहीं बनाएँगे।”
आडवाणी की इस रथ यात्रा का प्रभाव था कि पूरे देश से कारसेवक अयोध्या में जुटने लगे। कारसेवक इस बात पर अडिग थे कि मंदिर निर्माण तो होकर रहेगा चाहे तत्कालीन प्रदेश सरकार कितना भी जोर लगा ले। इसी कड़ी में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली भी चली जिसमें कोठारी बन्धु समेत तमाम कारसेवक मारे गए।
एक कारसेवक ने मरते हुए अपने खून से सड़क पर ‘जय श्री राम’ लिखा। यात्रा शुरू होने के बाद एक ओर देश के करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के सेवक आडवाणी खड़े थे तो दूसरी तरफ वीपी सिंह, मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे नेता कैसे अधिकाधिक मुस्लिम वोट बटोरे जाएं इसके लिए आपस में ही होड़ कर रहे थे।
इस यात्रा को रोक कर बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव ने रोक लिया। लालू यादव इस कदम के जरिए अपने आप को मुस्लिमों का मसीहा स्थापित करना चाहते थे। इसके साथ ही वह दिखाना चाहते थे कि वही एक ताकत हैं जो देश में हिंदुत्व के उभार को रोक सकते हैं।
रामरथ यात्रा ने मंदिर आंदोलन को घर-घर में बहस का मुद्दा बना दिया। आडवाणी को इस मामले में निर्विवाद तौर पर आंदोलन का राजनीतिक नेता मान लिया गया। आडवाणी ने भी बिना पीछे हटे हुए कहा कि मंदिर वहीं बनाएँगे, उसको कौन रोकेगा। उन्होंने साफ़ कर दिया कि देश की अदालतें तय नहीं करेंगी कि करोड़ों के आराध्य का जन्म कहाँ हुआ।
इस आंदोलन और रामरथ यात्रा के बाद देश की राजनीति में मार्क्सवाद, वामपंथ, समाजवाद, और कॉन्ग्रेस के अवसरवाद के बराबर में हिंदुत्व और दक्षिणपंथ का एक विकल्प खड़ा हो गया। आडवाणी ने इस हिंदुत्व को देश के पटल पर ऐसी शक्ति बना दिया जिसकी काट आज तक कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियां नहीं खोज पाई।
उपप्रधानमंत्री, भारत रत्न और पार्टी का उदय
लालकृष्ण आडवाणी मात्र हिंदुत्व के नायक ही नहीं बल्कि देश की बड़ी राजनीतिक शख्सियतों में से भी एक हैं। आडवाणी देश के उप्रधानमंत्री रहे, गृह मंत्री रहे। भाजपा के अध्यक्ष रहे और साथ ही नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं को उनके ही सानिध्य में राजनीति की बारीकियाँ सीखने का मौक़ा मिला।
उनके सामने ही पार्टी अब तक 6 बार केंद्र में सत्तारूढ़ हो चुकी है। उनके ही सामने पार्टी का विस्तार 2 सीटों से लेकर 300 पार तक पहुँचा है। पार्टी गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी हार्टलैंड कहे जाने वाले राज्यों से निकल कर कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में विकल्प बनी है और उत्तर पूर्वी राज्यों में उसने कॉन्ग्रेस और वामदलों का सफाया कर दिया है।