साल 2012 में एक फिल्म आई थी – ‘OMG: Oh My God!’ नाम की, जिसमें परेश रावल ने एक नास्तिक व्यक्ति का किरदार निभाया था और अक्षय कुमार भगवान श्रीकृष्ण के रूप में दिखे थे। 2014 के बाद हिन्दू पुनर्जागरण का जो काल आया है और जिस तरह से एक-एक कर के एजेंडाधारी बेनकाब हुए हैं, आज की तारीख़ में बहुत आवश्यक है कि इस फिल्म की पुनः समीक्षा हो। उस समय इस फिल्म ने भारत में 100 करोड़ रुपए से भी अधिक का नेट कारोबार किया था और IMDb पर भी इसकी रेटिंग 8 से ज्यादा है।
अब ‘OMG 2’ का टीजर भी आया है, इसीलिए भी इस फिल्म के बारे में फिर से बात किया जाना चाहिए। क्या फिल्म में भगवान का इस्तेमाल कर के नास्तिकवाद को बढ़ावा दिया गया? क्या हिन्दू धर्म के प्रतीकों का अपमान किया गया? एक खास सन्देश देने के चक्कर में सीमाएँ लाँघ दी गईं? आइए, समझते हैं। अब हिन्दुओं का सामूहिक बौद्धिक विकास भी हुआ है और उन्हें बॉलीवुड का हर प्रपंच समझ में आने लगा है, एक-एक बिंदु में तोड़ कर इस फिल्म पर फिर से चर्चा की जानी आवश्यक है।
धार्मिक यात्रा में शराब, गंगाजल और उपवास का अपमान
भारत में गंगाजल का अपना एक महत्व है, गंगा को सबसे पवित्र नदी का दर्जा दिया गया है। ऐसे में फिल्म की शुरुआत में ही एक दृश्य में दिखाया गया है कि कैसे ‘कांजीभाई’ (परेश रावल) एक महिला की मृत्यु के बाद हो रही एक धार्मिक यात्रा में सभी को शराब पिला देते हैं, सारे लोग शराब पी लेते हैं धोखे से। क्या यहाँ गंगाजल से शराब की तुलना उचित थी? इस तरह की तुलना जमजम के पानी को लेकर कभी की जा सकती है? हिन्दू धर्म में इस तरह की अपमानजनक चीजों को इतना हल्का-फुल्का बना दिया गया है कि हम इस पर हँसते हैं।
मूर्ति का मतलब खिलौना
फिल्म के एक दृश्य में कांजीभाई को भगवान की मूर्तियों को एक बड़ी दुकान से खरीदते हुए दिखाया गया है। इसमें वो हनुमान जी को ‘बॉडी बिल्डर’ कहते हैं और इसी तरह हर देवी-देवताओं का मजाक बनाते हैं। सुधारवाद के नाम पर हिन्दू प्रतिमाओं को खिलौना कहना कहाँ तक उचित है? यानी, पूरी की पूरी मूर्तिपूजा ही बेकार है? फिर तो हिन्दू धर्म के प्राचीन साहित्य भी बेकार हो गए? मंदिर बनवाने वाले राजा-महाराजा और उन मंदिरों में पूजा-पाठ करने वाले साधु-संत भी मूर्ख थे?
मूर्तिपूजा का विरोध तो इस्लाम में किया जाता है और इस्लामी आक्रांता प्रतिमाओं को ‘बूत’ बता कर इसे तोड़ते थे। क्या हिन्दू धर्म में सुधारवाद का यही अर्थ है कि वो इस्लाम के हिसाब से काम करने लगे? माना कि आर्य समाज भी मूर्तिपूजा के खिलाफ है, लेकिन श्रीराम या श्रीकृष्ण में आस्था इसके अनुयायियों की भी है। इसी तरह एक दृश्य में भगवान शिव को ‘काला पत्थर’ कह दिया गया है। अर्थात, करोड़ों लोगों की जिनमें आस्था है उन महादेव के लिए इस तरह के शब्द पर तो फिल्म को रिलीज ही नहीं होने देना चाहिए था।
मूर्तिपूजा के विरोध में इस फिल्म में कभी तर्क दिया जाता है कि हिन्दू धर्म में 35 करोड़ देवी-देवता हैं तो कभी दिखाया जाता है कि कैसे मूर्तियों में श्रद्धा रखने वाले लोग बेवकूफ होते हैं और इसके चक्कर में मूर्ख बन कर मूर्तियाँ खरीद देते हैं। यानी, बहुदेववाद ढकोसला है – इस फिल्म में ये बताने की कोशिश की गई है। अब्राहमिक मजहबों का इससे अच्छा प्रचार क्या होगा भला? इस्लाम की शुरुआत ही अरब में मूर्तियों को तोड़े जाने के साथ हुई थी, फिल्म इस थ्योरी को बड़े सॉफ्ट तरीके से आगे बढ़ाती है।
मूर्तिपूजा के विरोध में इस फिल्म में कभी तर्क दिया जाता है कि हिन्दू धर्म में 35 करोड़ देवी-देवता हैं तो कभी दिखाया जाता है कि कैसे मूर्तियों में श्रद्धा रखने वाले लोग बेवकूफ होते हैं और इसके चक्कर में मूर्ख बन कर मूर्तियाँ खरीद देते हैं। यानी, बहुदेववाद ढकोसला है – इस फिल्म में ये बताने की कोशिश की गई है। अब्राहमिक मजहबों का इससे अच्छा प्रचार क्या होगा भला? इस्लाम की शुरुआत ही अरब में मूर्तियों को तोड़े जाने के साथ हुई थी, फिल्म इस थ्योरी को बड़े सॉफ्ट तरीके से आगे बढ़ाती है।
मुस्लिमों की एरिया में हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं की दुकान
कांजीभाई की जो दुकान होती है, वो मुस्लिमों वाले एरिया में होती है। आप देखिएगा बॉलीवुड की चालाकी। जब-जब उस दुकान को दिखाया जाता है तब-तब वहाँ आसपास मुस्लिमों को चहलकदमी करते हुए दिखाया गया है। वास्तविकता इससे परे होती है, ये किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए दंगों में चुन-चुन कर हिन्दुओं की दुकानों को जलाया गया था। शिव विहार में 2 स्कूल अगल-बगल थे, मुस्लिमों का स्कूल दंगाइयों का पनाहगाह बना जबकि हिन्दुओं के स्कूल को फूँक दिया गया।
बॉलीवुड इसी तरह हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का सन्देश देता है, जहाँ हिन्दू हमेशा गुंडा होता है और मुस्लिम ‘मासूम’। हज को लेकर मजाक किए जाने पर मुस्लिम सुन कर रह जाता है, जबकि थोड़ा सा गुस्सा आने पर मंदिर का पुजारी पीटने के लिए कांजीभाई को दबोच लेता है – इस तरह के नैरेटिव ‘शोले (1975)’ के समय से ही चले आ रहे हैं जब गाँव में सबसे अच्छा और सच्चा मौलवी साहब ही हुआ करते थे।
जिसने धोती पहन रखी है, शिखा रख है – उसका मजाक बनाओ
आप पूरी OMG: Oh My God!’ फिल्म में ‘सिद्धेश्वर महाराज’ के किरदार पर गौर कीजिए। बॉलीवुड के लिए शुरू से जोकर का अर्थ रहा है धोती-शिखा वाला ब्राह्मण। शक्ति कपूर को इस तरह से कई फिल्मों में कास्ट किया गया है। क्या आपने बॉलीवुड में जोकर के रोल में कभी ऊँचे पायजामे वाले मौलवी को देखा है? फिल्म की शुरुआत में ही भूकंप आता है और सिद्धेश्वर महाराज गिरने लगते हैं। कभी तो टाँगें फैला कर कुर्सी पर बैठ कर कुछ खाते रहते हैं तो कभी कोर्ट में उन्हें अजीबोगरीब हरकत करते हुए दिखाया गया है। पंडितों के IQ पर टिप्पणी की जाती है, ‘इंटरेस्टिंग आइटम’ बताया जाता है।
इसी तरह एक दृश्य में साधु-संतों को अनपढ़ बताते हुए कांजीभाई कह देते हैं कि अधिकारी तो पढ़े-लिखे होते हैं, उनसे इनकी तुलना नहीं हो सकती। ऐसे डायलॉग्स और दृश्यों से युवावर्ग में इस तरह का सन्देश जाता है कि साधु-संत अनपढ़ होते हैं। वेद-पुराणों का अध्ययन करने वाले को पढ़ा-लिखा नहीं कहा जा सकता। पढ़ा-लिखा दिखने की पहली शर्त है कि व्यक्ति भारतीय परिधान न पहने। पहनेगा तो वो जोकर है। एक दृश्य में एक लड़के को यज्ञ करा रहे पंडित का मजाक बनाते हुए दिखाया गया है। इससे क्या सन्देश गया होगा?
आरती फूँकना, तिलक मिटाना: नास्तिक द्वारा धृष्टता
एक नास्तिक आरती की थाली में फूँक कर दीया बुझा देता है। एक दृश्य में वो अपना और अपने सहयोगी का तिलक पोंछ देता है। हाल ही में खबर आई कि मध्य प्रदेश के इंदौर स्थित एक स्कूल में तिलक लगा कर जाने पर बच्चे को पीट-पीट कर भगा दिया गया। इस करतूत का समर्थन करने वाला स्कूल का प्रिंसिपल हिन्दू है, इस करतूत को अंजाम देने वाली शिक्षिका हिन्दू हैं। भला इस तरह की मानसिकता ऐसी फिल्मों से ही आती है न? ये सिखाते हैं कि तिलक हटा दो, आरती मत करो – तभी तुम आधुनिक कहलाओगे।
बॉलीवुड में किसी भी निर्देशक की हिम्मत है तो वो मस्जिद में जाकर इस तरह की हरकतें करने वाला दृश्य दिखा दे। यहाँ तो जो बातें लिखी हुई हैं उन्हें बोल देने पर एक महिला को साल भर अपने ही घर में कैद रहना पड़ता है और उनका समर्थन करने वालों का गला रेत दिया जाता है। ये नास्तिकवाद की बीमारी हिन्दुओं में ही क्यों धकेली जा रही है? अजान और नमाज के प्रति सम्मान की भावना दिखाने वाला ये बॉलीवुड, जिसके सितारे दरगाहों पर चादर चढ़ाने जाते रहे हैं, उन्हें विलेन के रूप में साधु-संत ही क्यों चाहिए?
अच्छा मुस्लिम वकील, हिजाबी बेटी: इस्लाम पर बच कर चलती है ‘OMG: Oh My God!’
जहाँ एक तरफ हिन्दू धर्म और देवी-देवताओं को लेकर ऐसी-ऐसी टिप्पणियाँ हैं, इस्लाम मजहब का नाम आते ही फिल्म के निर्माता-निर्देशक की हवा निकल जाती है। एक मुस्लिम वकील है, जो इतना अच्छा है कि पूछिए मत। उसकी हिजाब पहनी हुई बेटी है, जो बहुत अच्छी है व्यवहार में। हाल ही में हिजाब के समर्थन में कर्नाटक में दंगे हुए, हमने देखा। ईरान में महिलाओं ने सड़क पर निकल कर अपने हिजाब जलाए। ऐसे में किसी फिल्म में हिजाब को सकारात्मक और धोती-शिखा को नकारात्मक दिखाने से क्या सन्देश जा सकता है? एक जगह सिर्फ ‘पैगंबर’ कहा जाता है, पूरा नाम लेने की हिम्मत भी नहीं होती और हिन्दू देवी-देवताओं के समय जबान कैंची की तरह खुलने लगती है।
एक मुस्लिम जब उपरवाले पर केस करने आता है तो उसे सिखाया जाता है कि वो अल्लाह मियाँ के खिलाफ नहीं जा रहा। देखिए, यहाँ कितने संभल-संभल कर डायलॉग लिखे गए हैं। यहाँ आरती फूँकना, तिलक मिटाना, शिवलिंग को काला पत्थर कहना – ऐसी शब्दावली का इस्तेमाल नहीं किया गया है। फिल्म में सारे मुस्लिम किरदार बहुत अच्छे मिलेंगे आपको। एक से हज पर मजाक किया जाता है लेकिन वो सहिष्णु है, एक फ्री में कांजीभाई की मदद करता है, उसकी बेटी भी मदद करती है, मौलवी साहब भी संतों की तरह ‘बिगड़े हुए’ नहीं हैं।
मिथुन चक्रवर्ती का चित्रण आपको क्यों डिस्टर्ब करना चाहिए
इस फिल्म में एक और खास बात है – ‘लीलाधर स्वामी’ के किरदार में मिथुन चक्रवर्ती। लीलाधर स्वामी पुरुष हैं, लेकिन महिलाओं की तरह उनका चाल-चलन है। वो हमेशा अपना एक हाथ अपने मुँह के पास रखे रहते हैं। वो ज्ञानी हैं, लेकिन फिल्म में मुख्य विलेन भी। वो भी धोती पहनते हैं, स्पष्ट है कि उनका रोल सकारात्मक नहीं ही रहना चाहिए। बॉलीवुड में ये चीज एक तरह से नॉर्मल रही है, ‘सिंघम 2’ का हीरो साधु को थप्पड़ मार कर घसीटते हुए जेल ले जाता है, लेकिन दरगाह के सामने सर झुकाने के लिए दूसरों को भी मजबूर करता है।
लीलाधर स्वामी के बोलचाल के अंदाज़ को भी ऐसा रखा गया है। ये एक तरह से ट्रांसजेंडर समाज का भी अपमान है, सिर्फ साधु-संतों का ही नहीं। हमने साधु-संतों के इस चित्रण के खिलाफ आवाज उठाई होती तो न तो ‘सिंघम 2’ में कुछ वैसा दिखाया जाता और न ही ‘आश्रम’ जैसी वेब सीरीज में धर्म के साथ सेक्स जैसी चीजें परोसी जातीं। अगर एकाध ऐसी घटनाएँ वास्तविक भी हैं, फिर बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर फिल्म बनेगी? मदरसों में यौन शोषण करने वाले मौलवियों पर आज तक फिल्म बनी है?
लोकतंत्र में ‘भगवान’ भी कटघरे में
ईश्वर तो तब भी विद्यमान थे जब लोकतंत्र नहीं था, संविधान नहीं था और पुलिस-कोर्ट नहीं हुआ करती थी। तब इन सबका कुछ और रूप हुआ करता था। उससे पहले कुछ और रूप। लेकिन, ईश्वर में आस्था इस संस्कृति की पहचान रही है। फिल्म के एक दृश्य में कहा जाता है कि ये लोकतंत्र और और यहाँ भगवान को भी न्यायालय में पेश होना पड़ेगा। लोकतंत्र का ये अर्थ तो बिलकुल भी नहीं है। उलटे सत्ता में, न्यायपालिका में और ब्यूरोक्रेसी में जो लोग हैं उन्हें ईश्वर का भय होना चाहिए कि उनसे गलती हुई तो उन्हें सज़ा मिलेगी।
हजारों वर्ष पुरानी इस संस्कृति में ईश्वर को सिर्फ इसीलिए नीचा नहीं दिखाया जा सकता, क्योंकि यहाँ 74 वर्षों से एक संविधान है और एक लोकतंत्र है। अक्सर आपने आजकल खबरों में पढ़ा होगा कि कभी हनुमान जी को कोर्ट द्वारा समन भेज दिया जाता है तो कभी किसी और देवी-देवता को। हो सकता है इस तरह की फ़िल्में देख कर कुर्सी पर बैठे लोग खुद को भगवान से ऊपर समझने लगें। ऐसी स्थिति न आए, इस स्थिति से हमें डरना चाहिए, क्योंकि ईश्वर और उसमें आस्था हजार वर्ष बाद भी होगी जब शायद सत्ता और न्यायपालिका का स्वरूप अलग हो।
मंदिरों को बदनाम करने के लिए अदालत में भाषण
कांजीभाई मंदिरों को गाली देने के लिए कोर्ट में पूरा का पूरा भाषण देते हैं और बड़ी बात ये कि कार्यवाही देख रहे ‘भगवान श्रीकृष्ण’ भी उनसे सहमत दिखते हैं। इसीलिए, इसे ये कह कर ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि ये किरदार बोल रहा होता है। कांजीभाई तर्क देते हैं कि फूल, चंदन लड्डू वगैरह खरीदने होते हैं जो मंदिर बेचता है और पैसे कमाता है। नहीं कांजीभाई, मंदिर के बाहर ये चीजें बेचने वाले गरीब लोग ही होते हैं, जिनकी उस मंदिर के कारण आमदनी होती है।
महाशिवरात्रि के समय आप जो बेलपत्र खरीदते हैं वो मंदिर नहीं बेच रहा होता है बल्कि गरीब लोग ही बेच रहे होते हैं। पूजा सामग्रियों की दुकानें छोटे कारोबारियों की ही होती हैं। बड़ी आसानी से मंदिरों के पैसे को ब्लैक मनी बता दिया जाता है। जबकि मंदिरों पर सरकार का कब्ज़ा है और उनके पैसे सरकार की झोली में जाते हैं। अगर मंदिर सरकार कब्जे से मुक्त होते, तब इस तर्क पर बहस भी हो सकती थी। मंदिर में भिखारियों की एंट्री नहीं होती – ये नैरेटिव भी इसमें फैलाया गया है।
अगर कोई व्यक्ति कहीं बैठ कर भीख माँग रहा है तो ये सरकार और समाज की नाकामी है या धर्म और मंदिरों की? इसमें मंदिरों के पैसों से चलने वाले अस्पतालों और स्कूलों को एक लाइन में ये कह कर नकार दिया गया है कि ये ऐसा ही है जैसे गुटखा बेचने वाले कैंसर की दवा भी बेचें। क्या मंदिर जाना कैंसर है? कई गरीबों की कमाई एक मंदिर के कारण हो जाती है। ये तर्क नास्तिकवाद नहीं, हिन्दू विरोध है। भगवान की सह कर भला कोई कैसे इस तरह के तर्क दे सकता है? कहाँ, किस वेद-पुराण में लिखा है ऐसा?
आजकल आपने खबरों में देखा होगा कि कैसे उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में अवैध मजारों को तोड़ा जा रहा है। जबकि ‘OMG: Oh My God!’ फिल्म में कोई अवैध मजार नहीं होता, बल्कि खेल के मैदान में अवैध मंदिर बना दिया जाता है। इसमें बार-बार प्रतिमाओं के लिए पत्थर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। क्या मक्का-मदीना में क्या है, इस पर मजाक उड़ाने की हिम्मत है? अब तो अवैध मजार तोड़े भी जा रहे हैं, 2012 के समय में तो अवैध मजार को अवैध बताना भी महापाप था।
बाल अर्पण करने का भी बनाया गया है मजाक, दावा – इसका धंधा होता है
श्राद्ध, यज्ञोपवीत और मुंडन में बाल अर्पण करने की परंपरा रही है। फिल्म में एक टीवी इंटरव्यू में कांजीभाई दवा करते हैं कि बाल अर्पण करने के पीछे एक बहुत बड़ा धंधा चलता है। किसी के घर में बाल ही बाल हो जाएँ तो कैसा लगेगा, भगवान को भी अच्छा नहीं लगेगा – ये तर्क दिया गया है। हिन्दू धर्म में बाल अर्पण करना अपने अहंकार के त्याग का प्रतीक है। मुंडन एक संस्कार है। अगर बालों का इस तरह का धंधा होता तो हर कोई अपने बाल बेच कर कमाई कर लेता। सैलून वाला कटे हुए बालों को बुहार कर फेंकता ही नहीं न?
ये अलग बात है कि लोग अपनी किसी खास मन्नत के पूरे होने पर भी बाल अर्पण करते हैं, लेकिन ये तो अपनी आस्था है न? मुंडन संस्कार का उल्लेख यजुर्वेद में भी मिलता है। शिशु के विकास के लिए इसे आवश्यक माना गया है। ऐसे तो हर एक परंपरा का विरोध किया जा सकता है? कोई इस फिल्म को बनाने वालों से ये पूछ सकता है कि सिनेमाघर और मॉल के बाहर भी भिखारी होते हैं, फिर तो फ़िल्में बननी ही नहीं चाहिए और बॉलीवुड को ही खत्म हो जाना चाहिए।
शिवजी को दूध नहीं चढ़ाना चाहिए, गरीब को देना चाहिए
अगर कोई बॉलीवुड वालों से पूछे कि जब देश में इतनी गरीबी है तो फिल्मों पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने की क्या ज़रूरत गई, क्योंकि न ये पैसे गरीबों में बाँट दिए जाएँ? युवा वर्ग में हिन्दू धर्म के खिलाफ भावना भरने के लिए अक्सर गरीबों का इस्तेमाल किया जाता है। फिल्म में कांजीभाई कहते हैं कि शिवलिंग पर दूध चढ़ाने से वो बर्बाद हो जाता है, गरीब प्यासा रह जाता है। सवाल ये है कि लोग दूध खुद की कमाई से खरीदते हैं, आस्था उनकी होती है, किसी का नुकसान नहीं करते – फिर दिक्कत क्या है?
फिर तो बॉलीवुड की हस्तियों को बड़े-बड़े घर भी नहीं बनाने चाहिए क्योंकि कई गरीब फुटपाथ पर सोते हैं। उन्हें अपने घरों में गरीबों को जगह देना चाहिए? आखिर हिन्दू परंपरा को तोड़ कर ही समाजसेवा क्यों? शिवलिंग पर जल चढ़ाने वाले तो गरीबों को भी कुछ पैसे दे देते हैं, ये बॉलीवुड वाले क्या करते हैं? मालदीव के ट्रिप? शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा भी हजारों वर्ष पुरानी है और हमारे प्राचीन साहित्य में इसका जिक्र है, एक फिल्म में एक लाइन में गरीबों की बात कर के बड़ी चालाकी से इसे दोषी ठहरा दिया गया है।
भगवान श्रीकृष्ण कुरान और बाइबिल पढ़ने के लिए देते हैं
बॉलीवुड में अक्सर ये कह कर भाईचारे का सन्देश दिया जाता है कि जो भगवद्गीता में लिखा है, वही कुरान और बाइबिल में भी लिखा है। मतलब कुछ भी? कहाँ हैं समानताएँ? गीता में न तो ये लिखा है कि जो तुम्हारे धर्म में न माने उसे मार डालो और न ही ये लिखा है कि दूसरों का धर्मांतरण कराओ। भगवान श्रीकृष्ण भला किसी को कुरान और बाइबिल पढ़ने को क्यों देंगे? पता नहीं ‘OMG: Oh My God!’ में ये दृश्य क्यों डाला गया है। वही बात हो गई कि मंदिरों में बजते हैं ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’, क्या किसी मस्जिद में सुना ‘रघुपति राघव राजा राम’?
कुरान और बाइबिल की तुलना भगवद्गीता से नहीं होनी चाहिए, किसी भी पुस्तक की नहीं होनी चाहिए। न तो बॉलीवुड में कोई ऐसा विद्वान बैठा है जिसने साबित किया हो कि तीनों के कंटेंट एक हैं, न ही वहाँ कुछ ऐसा रिसर्च किया जाता है। फिर ये सब क्यों? कोई मौलवी भी नहीं मानेगा कि गीता में वही सब लिखा है जो कुरान में है। रामायण, महाभारत, वेद, पुराण, संहिता, उपनिषद – कहाँ लिखा है कि गीता और कुरान-बाइबिल एक हैं? वेदों में तो पृथ्वी को चपटी नहीं बताया गया है।
पहली नजर में कोई भी व्यक्ति इस फिल्म को देखेगा तो उसे अपने ही धर्म से घृणा हो जाए। खुद अक्षय कुमार ने कहा था कि इस फिल्म को करने के बाद उन्होंने परिवार सहित वैष्णो देवी की यात्रा की योजना रद्द कर दी थी। फिर दर्शकों पर इसका क्या असर पड़ा होगा, सोचिए। आज कुछ हिन्दू ही कभी काँवड़ यात्रा का विरोध करते हैं तो कभी होली पर पानी की बर्बादी और दीवाली पर प्रदूषण की बात करते हैं, वो यूँ ही नहीं है। ‘OMG: Oh My God!’ जैसी फिल्मों ने चरणबद्ध तरीके से इसके लिए माहौल बनाया है।