अगर यूरोप नाजीवाद और फासीवाद के सच को विस्मृत कर देगा, तो वहां फिर से वही सब होने से बचना संभव नहीं रह जाएगा। यही स्थिति भारत के साथ है। यदि हम आपातकाल को विस्मृत कर देंगे, तो हमारे लिए भी अपने लोकतंत्र को बचाए रखना संदिग्ध हो जाएगा। आपातकाल की लोमहर्षक कहानी लाखों लोगों को जेल में बंद करके, लोकतंत्र का, कानून का, संविधान का, मर्यादा का, हर तरह की संस्था का, न्यायपालिका का गला घोंटकर स्वयं को सत्ता में बनाए रखने की तानाशाह सनक की कहानी है।
सर्वोच्च न्यायालय तानाशाही में बाधा बना, तो न्यायपालिका के दांत और नाखून उखाड़ दिए गए। विपक्ष ने चुनाव में हरा दिया, तो सारे विपक्ष को जेल में डाल दिया गया। सिर्फ विपक्ष ही नहीं, कांग्रेस में भी जिसने एक परिवार की तानाशाही पर आपत्ति की, उसे जेल में डाल दिया गया। इस देश के नागरिकों को ऐसी अमानवीय यातनाएं दी गईं, जैसे वे किसी दूसरे देश में अपराध करते हुए पकड़े गए हों। कितने ही लोग पुलिस अत्याचारों में मारे गए।
प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। पूरी निर्लज्जता से कहा गया कि हमें ‘कमिटेड ब्यूरोक्रेसी’ चाहिए। और इतना सब करने के बाद छेड़ा गया प्रचार अभियान – ‘हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं।’ किसका सुनहरा कल? परिवारवाद का? भारत को अपनी जागीर समझने की मानसिकता का?
विडंबना यह है कि पिछले नौ वर्षों से तानाशाही और आपातकाल की बातें वे कर रहे हैं, जिनको सत्ता में रहते हुए अत्याचार करने की आदत है। जिनकी अपने विरोधियों को नष्ट कर देने शैली बिल्कुल वैसी है, जैसी हिटलर की होती थी।
और पुरानी आदतें बदली नहीं हैं। भारत के इतिहास में ऐसे भी प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनको शपथ पहले दिला दी गई, कांग्रेस संसदीय दल से उनके नाम पर मुहर बाद में लगवाई गई। ठीक वैसे ही, जैसे आपातकाल के लिए राष्ट्रपति के हस्ताक्षर रात में करवाए गए और कैबिनेट से अनुमोदन सुबह कराया गया।
इन बातों को बीती बात मानकर छोड़ना वैसा ही होगा जैसे यूरोप में किसी नाजी पार्टी को फिर से पनपने देना। यह न तो विचारधारा का प्रश्न है, न राजनीति का। यह भारत के लोकतंत्र की रक्षा का प्रश्न है।
25 जून 1975 की रात से शुरू हुई इस कहानी के बारे में जितना कहा जाए, कम है। पीढ़ियां बदल जाएंगी, लेकिन इतिहास नहीं बदल सकता। उस इतिहास के कुछ बिंदुओं को सामने रखने का प्रयास किया गया है आपातकाल पर इस विशेष आयोजन में…