विश्व पर्यावरण दिवस प्रतिवर्ष 5 जून को पर्यावरण संरक्षण के प्रति वैश्विक जागरूकता और प्रतिबद्धता को व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है। यह दिन न केवल पर्यावरणीय समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करने का माध्यम है, बल्कि यह हमें हमारे कर्तव्यों की भी याद दिलाता है कि हम प्रकृति और उसके संसाधनों का संरक्षण करें। 2025 में यह दिवस प्लास्टिक प्रदूषण के समाप्ति पर केंद्रित है, जो वर्तमान समय में पृथ्वी के सामने सबसे गंभीर संकटों में से एक है।
आज दुनिया एक त्रिस्तरीय पर्यावरण संकट से जूझ रही है— पहला, जलवायु परिवर्तन, जिससे पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है; दूसरा, प्राकृतिक संसाधनों की कमी, जो अंधाधुंध वनों की कटाई, जैव विविधता का ह्रास और मिट्टी की घटती उर्वरता के रूप में सामने आ रही है; और तीसरा, प्रदूषण और कचरा संकट, जिसमें जल, वायु और मिट्टी का प्रदूषण, रासायनिक अपशिष्ट और विशेष रूप से प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग शामिल है।
ऐसे समय में भारतीय संस्कृति और शास्त्रों की शिक्षाएं अत्यंत प्रासंगिक हो गई हैं। हमारे वेद, उपनिषद, पुराण और अन्य ग्रंथों में प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व और संतुलन की भावना को मानवधर्म का अभिन्न हिस्सा माना गया है। भूमि को माता, नदियों को देवियाँ और वृक्षों को जीवनदायिनी कहा गया है। अथर्ववेद में उल्लेख है: “पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।” यही भावना “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा में प्रकट होती है, जो सम्पूर्ण धरती को एक परिवार के रूप में देखने और उसका संरक्षण करने का आह्वान करती है।
भारतीय परंपरा में नदियों को दिव्य माना गया है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों को जीवनदायिनी शक्ति और पवित्रता का प्रतीक माना गया है। शास्त्रों में यह भी स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि जल को दूषित करना पाप है—कहा गया है कि जो व्यक्ति तालाब, सरोवर या जल स्रोतों को गंदा करता है, उसे नरक प्राप्त होता है। यह केवल धार्मिक चेतावनी नहीं, बल्कि एक प्रारंभिक पर्यावरणीय चेतावनी भी है।
वृक्षों को भी भारतीय संस्कृति में अत्यंत महत्व दिया गया है। उन्हें देवतुल्य माना गया है, क्योंकि वे न केवल ऑक्सीजन, छाया और फल प्रदान करते हैं, बल्कि असंख्य जीवों का आश्रय भी हैं। वृक्षारोपण को पुण्यकर्म कहा गया है। मत्स्य पुराण में देवी पार्वतीजी ने कहा है: “दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है।” यह दृष्टिकोण बताता है कि एक वृक्ष को न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से बल्कि सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत मूल्यवान माना गया है।
यह स्पष्ट है कि भारतीय शास्त्रों में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणाएँ आधुनिक वैज्ञानिक सोच से बहुत पहले ही विकसित हो चुकी थीं। जल स्रोतों का निर्माण, वृक्षारोपण, भूमि की उर्वरता को बनाए रखना और समस्त प्रकृति को ईश्वर का स्वरूप मानना—ये सभी सिद्धांत आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक हैं। जब आज के समय में हम “Reforestation”, “Save Water”, “Protect Nature” जैसे अभियानों की बात करते हैं, तो वास्तव में हम उन्हीं आदर्शों को पुनः दोहरा रहे हैं, जो हमारी संस्कृति में सदियों से मौजूद रहे हैं।
इस विश्व पर्यावरण दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम केवल प्रतीकात्मक रूप से नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप से अपने पूर्वजों की पर्यावरणीय शिक्षाओं को अपनाएँ। वृक्षारोपण करें, जल स्रोतों की रक्षा करें, कचरा कम करें और धरती माता को पुनः हरा-भरा बनाएं। यही हमारे वेदों का सार, यही भारतीय संस्कृति का आधार, और यही वसुधैव कुटुम्बकम् की सच्ची भावना है।