अपने जन्म के समय से ही राजस्थान कांग्रेस के लिए चुनौती बना रहा. पहले कांग्रेसी कुर्सी के लिए आपसे में लड़ते रहे और अब अपने-अपनों से लड़ रहे हैं तो स्वाभाविक विपक्ष से भी संघर्ष जारी है. सचिन पायलट-अशोक गहलोत संघर्ष पूरे चार साल चला. पायलट को डिप्टी सीएम की कुर्सी गंवानी पड़ी लेकिन संघर्ष चलता रहा. सीएम अशोक गहलोत विपक्ष से कम अपनों से ज्यादा परेशान रहे. इस चुनाव के परिणाम क्या होंगे यह समय बताएगा लेकिन बीते पांच साल अशोक गहलोत ने विरोध करने वालों को अपने तरीके से निपटाते रहे-बहलाते रहे.
राजस्थान की फितरत है अपनों का विरोध. इसके अनेक प्रमाण शुरू से मिलते हैं. सबको पता है कि आजादी के समय देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी. राजस्थान राज्य का निर्माण भी बड़ी मुश्किलों के बाद हो पाया. पटेल की इच्छाशक्ति और इरादे मजबूत न होते तो आज का राजस्थान शायद हमारे सामने न होता. कुछ और ही देख रहा होता देश. जब राजस्थान बना तो सीएम की रेस में कई लोग सामने आ गए. गुटबाजी इस कदर कि नेहरू-पटेल भी कन्फ्यूज होने लगे. जय नारायण व्यास, माणिक्य लाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट और पंडित हीरा लाल शास्त्री, ये चार नाम ऐसे थे जिन्होंने रियासतों को मिलाने से लेकर कांग्रेस को मजबूत करने में अपने-अपने तरीके से जुटे रहे. इसलिए चारों की दावेदारी थी. बनना किसी एक को था.
ऐसे में सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रभाव के बाद पंडित हीरा लाल शास्त्री नवगठित राज्य के पहले सीएम बने और 7 अप्रैल 1949 को शपथ ली. आज यानी 24 नवंबर 1899 को उन्हीं हीरा लाल शास्त्री की जयंती है. अनेक विपरीत सूरत में उन्होंने जो कर दिया, बिरले ही कर पाते हैं. आइए उनके जिंदगी से जुड़े कुछ रोचक किस्से जानते हैं.
जोशी से शास्त्री बनने की कहानी
पहले उनका नाम हीरा लाल जोशी था. अंग्रेजी शासन, अत्याचार चरम पर था. माता-पिता मामूली किसान थे. बचपन मुश्किलों में कटा लेकिन वे कुशाग्र बुद्धि के थे. पढ़ाई चलती रही. उन्होंने संस्कृत से शास्त्री की शिक्षा हासिल कर ली. यह डिग्री आने के साथ ही हीरा लाल जोशी, हीरा लाल शास्त्री बन गए. वे गांव में ही शिक्षक के रूप में बच्चों को पढ़ाना चाहते थे. गरीबों की मदद करने की तमन्ना रखते थे. पर उन्हें जयपुर स्टेट सर्विस जॉइन करनी पड़ी.
बेहद कम 21 साल की उम्र में वे अफसर बन गए और देखते ही देखते गृह, विदेश सचिव बने. उन्होंने मेयो कालेज में भी अपनी सेवाएं शिक्षक के रूप में दी. फिर धीरे-धीरे उनकी रुचि राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में जाग उठी तब उन्होंने स्टेट सर्विस से इस्तीफा देकर पूरी तरह देश-समाज सेवा में जुट गए.
जब नेहरू-पटेल के संपर्क में आए शास्त्री
जमना लाल बजाज उन दिनों जयपुर प्रजामंडल के प्रमुख थे. शास्त्री उनके संपर्क में आए तो दोनों की जोड़ी जमने लगी. बजाज ने शास्त्री को सचिव बना दिया. फिर अचानक बजाज के निधन के बाद प्रजामंडल की जिम्मेदारी शास्त्री के कंधों पर आ गई. इस बीच वे नेहरू, पटेल जैसे बड़े नेताओं के संपर्क में भी आ गए. उनकी प्रतिभा से पटेल काफी प्रभावित थे. आजादी के बाद संविधान सभा में भी उन्हें अपनी बात रखने का मौका मिल तो वे तर्कपूर्ण तरीके से पेश आए. उनकी भूमिका राजघरानों को एक करने में भी महत्वपूर्ण रही. यह काम भी सरदार पटेल के मन का था. देखते-देखते वे पटेल के दिल-दिमाग पर अपना प्रभाव बनाने में कामयाब रहे.
विवाद पसंद नहीं था तो दे दिया इस्तीफा
सरदार पटेल की सहमति के बाद शास्त्री सीएम तो बन गए लेकिन विरोध थमा नहीं. जय नारायण व्यास, माणिक्य लाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट जैसे बड़े कद के नेता अपने-अपने तरीके से उनका विरोध कर ही रहे थे लेकिन किसी की चली इसलिए नहीं क्योंकि सबको यह पता था कि सरदार पटेल का उन्हें समर्थन है. पर इसी बीच पटेल का निधन हो गया. उधर, कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में पुरुषोत्तम दास टंडन जीत गए. शास्त्री ने उनका समर्थन किया था. नेहरू जेबी कृपलानी को अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते थे.
नतीजा, विरोधियों को मौका मिल गया और उन्होंने एक बार फिर अपनी मुहिम तेज कर दी. इस बीच शास्त्री ने नेहरू को मनाने या कुछ भी बताने की कोई कोशिश नहीं की. दिल में समाजसेवा की ललक थी तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन सीएम की कुर्सी एक पूर्व आईसीएस अफसर सीएस वेंकटचारी के हाथ लग गई.
बेटियों की शिक्षा के प्रबल समर्थक थे शास्त्री
सीएम बनने से काफी पहले से वे बेटियों की शिक्षा को लेकर काम करने लगे थे. गांव में वे आश्रम बनाकर रहते. गांव में स्कूल नहीं था तो बेटी को खुद पढ़ाते. लेकिन महज एक दिन की बीमारी में बेटी शांता का 12 साल की उम्र में निधन हो गया. शास्त्री अंदर से टूट गए और वहीं से एक ऐसी बयार चली कि उसकी हवा का झोंका आज भी देश महसूस कर रहा है.
बेटी की मौत से उबरने के बाद शास्त्री ने छह बच्चियों को अनौपचारिक रूप से पढ़ाना शुरू कर दिया. देखते-देखते संख्या बढ़ने लगी और उनकी राजनीतिक व्यस्तता भी. वे मानते थे कि बेटियां पढ़ेंगी तभी देश और समाज में रोशनी बिखरेगी. इसी सपने को पूरा करने के इरादे से उन्होंने बेटियों के लिए वनस्थली गांव में एक छोटा सा स्कूल शुरू किया.
शास्त्री के सपनों को आकार दे रहा वनस्थली विद्यापीठ
जब सीएम के पद से इस्तीफा दिए तो फिर अपने लगाए पौधे की देखरेख करने लगे. उसे बड़ा करने में जुट गए. आज का वनस्थली विद्यापीठ उन्हीं के सपनों को साकार कर रहा है. बेटियों को समर्पित यह देश का ऐसा शैक्षिक संस्थान है, जहां देश भर के लोग बेटियों को भेजकर घर में निश्चिंत बैठ जाते हैं. पूरी तरह से आवासीय यह शिक्षण संस्थान आज देश भर में मशहूर है.
यहां कक्षा एक से लेकर पीजी और पीएचडी तक की व्यवस्था है. हर एग्जाम में यहां की बेटियों का शानदार प्रदर्शन देखने को मिलता है. आज शास्त्री भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन मौजूद प्रबंधन समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर वनस्थली विद्यापीठ को आगे लेकर जा रहा है.