उत्तर प्रदेश की सियासत में कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन कर एक नए तरह की राजनीति शुरू की. पार्टी को नब्बे के दशक में सफलता भी मिली, उसके बाद ही कांशीराम की तर्ज पर ही बसपा से निकले कई नेताओं ने जाति आधारित पार्टियों का गठन किया. पूर्वांचल इलाक में ऐसे दल अपनी जड़े जमाने में कामयाब हैं और अगले दो चरण में उनकी सियासी ताकत की परीक्षा होनी है. राजनीतिक दलों ने पूर्वांचल पर पूरा फोकस कर दिया है, जहां चुनावी रण में मोदी-योगी के साथ-साथ पिछड़ी जाति की राजनीति करने वाले ओमप्रकाश राजभर से लेकर अनुप्रिया पटेल और संजय निषाद की अग्निपरीक्षा होनी है?
यूपी की सियासत पूरी तरह से ओबीसी के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है और पूर्वांचल में तो इनका दबदबा है. सूबे में करीब 50 फीसदी ये वोट बैंक जिस भी पार्टी के खाते में गया, सत्ता उसी की हुई. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पिछड़े वर्ग का अच्छा समर्थन मिला, लेकिन इस बार सपा सेंधमारी करती हुई नजर आ रही है. पूर्वांचल की 27 लोकसभा सीटें पर अगले दो चरणों में चुनाव है. पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से सीएम योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में आगामी चरणों में चुनाव है, जहां एनडीए गठबंधन में शामिल सुभासपा, निषाद पार्टी और अपना दल (एस) की प्रतिष्ठा दांव पर है. ऐसे में देखना है कि पूर्वांचल में ये क्या सियासी गुल खिलाते हैं?
ओमप्रकाश राजभर की असल परीक्षा
ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा 2017 के चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी और 4 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. राजभर ने 2022 में सपा के संग मिलकर चुनाव लड़े और छह सीटें जीतने में सफल रहे, लेकिन अब फिर से बीजेपी के साथ मिलकर 2024 के चुनाव में उतरे हैं. सुभासपा से राजभर के बेटा अरविंद राजभर घोसी लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरे हैं, जिनका मुकाबला सपा के अजय राय और बसपा से बाल कृष्ण चौहान से है. ओम प्रकाश राजभर के कंधों पर अपने बेटे को जिताने के साथ पूर्वांचल में बीजेपी का बेड़ा पार लगाने की बड़ी जिम्मेदारी है
सुभासपा भले ही एक सीट अपने प्रत्याशी उतारे हैं, लेकिन उनका प्रभाव पूर्वांचल के इलाके की हैं, जहां पर छठे और सातवें चरण में चुनाव होने हैं. ओमप्रकाश राजभर को पूर्वांचल में सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ-साथ बसपा कड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी. सुभासपा का गठन तो 2002 में ही हो गया था, लेकिन खाता 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी से गठबंधन करने के बाद खुला. पूर्वांचल के इलाके में राजभर समुदाय की आबादी तीन फीसदी है, लेकिन अंबेडकरनगर, बलिया, मऊ, गाजीपुर, वाराणसी, चंदौली, श्रीवस्ती, आजमगढ़ और जौनपुर सीट पर भी अच्छी खासी संख्या है. ऐसे में राजभर को अपने समुदाय के वोट को सिर्फ अपने बेटे ही नहीं बल्कि बीजेपी के उम्मीदवार को भी दिलाने की परीक्षा होगी.
निषाद पार्टी का पूर्वांचल में होगा टेस्ट
योगी सरकार में मंत्री डा. संजय निषाद की निषाद पार्टी की असल परीक्षा पूर्वांचल की सीटों पर होनी है. संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद बीजेपी के टिकट पर संत कबीर नगर सीट से दोबारा से किस्मत आजमा रहे हैं. पूर्वांचल में निषाद समुदाय के वोटर बड़ी संख्या में है, जो किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. इस तरह संजय निषाद को अपने बेटे को जिताने के साथ पिछड़ों पर उनके प्रभाव को साबित करने की जिम्मेदारी है. संजय निषाद का दावा है कि 16 सीट पर निषाद समाज का प्रभाव है. इनमें से अधिकांश सीट पूर्वांचल में ही हैं. कोई भी दल उनके सहयोग के बिना चुनाव नहीं जीत सकता.
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने जिस तरह पूर्वांचल में निषाद उम्मीदवारों पर दांव खेल रखा है, उसके चलते संजय निषाद के लिए कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा. यूपी में पांच फीसदी निषाद समुदाय के वोटर हैं, जो 2014 से बीजेपी के साथ खड़ा नजर आ रहा है. ऐसे में सपा ने निषाद वोटों में सेंधमारी की कवायद में है. सपा पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष डा. राजपाल कश्यप निषाद, कश्यप, बिंद बिरादरी के बीच देर रात तक बैठकें कर रहे हैं. डा. कश्यप का दावा है कि सपा की ओर से निषाद बिरादरी के पांच प्रत्याशी उतारने का फायदा मिल रहा है. ऐसे में संजय निषाद कैसे निषाद समुदाय को बीजेपी के साथ जोड़े रख पाते हैं?
अनुप्रिया पटेल की अग्निपरीक्षा
कुर्मी समुदाय के सियासी आधार रखने वाले अपना दल दो गुटों में बंटा हुआ है, जिसमें एक धड़ा केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की अगुवाई में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है तो दूसरा कृष्णा पटेल का है. पूर्वांचल में कुर्मी जाति की काफी संख्या है और अनुप्रिया पटेल को ही इनका सर्वमान्य नेता माना जाता है. अपना दल (एस) दो सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से खुद मैदान में है तो दूसरी सीट राबर्टसगंज है. अनुप्रिया को अपनी सीट जीतने के साथ-साथ बीजेपी को जितानी होगी, जिन पर कुर्मी मतदाता अधिक हैं.
पूर्वांचल में 7 फीसदी वोटर कुर्मी है, लेकिन कई सीटों पर उनकी आबादी 18 फीसदी तक है. 2014 से कुर्मी समुदाय बीजेपी के साथ मजबूती से है, लेकिन 2022 के चुनाव में सपा सेंधमारी करने में थोड़ा बहुत कामयाब रही थी. इसके चलते इस बार 10 कुर्मी समुदाय के प्रत्याशी को सपा ने उतारा है, जिसमें 6 उम्मीदवारों की परीक्षा अगले दो चरणों में होना है. दिलचस्प बात यह है कि सपा ने जिन सीटों पर कुर्मी समुदाय के प्रत्याशी उतारे हैं, उनके सामने बीजेपी से गैर-कुर्मी और खासकर ब्राह्मण समुदाय के हैं. ऐसी स्थिति में अनुप्रिया पटेल को कुर्मी समुदाय को बीजेपी के पक्ष में लामबंद करने की जिम्मेदारी है, देखना है कि इसमें वो कितना कामयाब होती हैं?
छठे और सातवें चरण में चुनाव
लोकसभा चुनाव के छठे चरण में उत्तर प्रदेश की 14 सीटों पर 25 मई को मतदान है तो सातवें चरण में 13 सीटों पर एक जून को वोटिंग है. छठे चरण में सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, फूलपुर, प्रयागराज, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती, डुमरियागंज, बस्ती, संत कबीरनगर, लालगंज, आजमगढ़, जौनपुर, मछली शहर, भदोही में चुनाव है. सातवें चरण में वाराणसी, गोरखपुर, मिर्जापुर, चंदौली, घोसी, गाजीपुर, महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, बांसगांव, सलेमपुर, बलिया और रॉबर्ट्सगंज सीट पर एक जून को मतदान है.
पूर्वांचल में ओबीसी सियासत
पूर्वांचल की सियासत ओबीसी के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. माना जाता है कि इस पूरे इलाके में करीब 50 फीसदी से ज्यादा ओबीसी वोट बैंक जिस भी पार्टी के खाते में गया, जीत उसकी तय हुई. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पिछड़ा वर्ग का अच्छा समर्थन मिला. नतीजतन केंद्र और राज्य की सत्ता पर मजबूती से काबिज हुई . ऐसे में बीजेपी और सपा दोनों ही पार्टियां ओबीसी वोटों का साधने के लिए तमाम जतन इस बार किए हैं. ऐसे में बसपा ने भी पूर्वांचल के सियासी समीकरण को देखकर अपने उम्मीदवार उतारे हैं.
सपा ने अपने कोटे की 22 लोकसभा सीटों में से 14 सीट पर गैर-यादव ओबीसी के प्रत्याशी उतार रखा है तो चार सीट पर दलित उम्मीदवार हैं. इसके अलावा एक यादव, एक मुस्लिम और एक ब्राह्मण और एक राजपूत प्रत्याशी मैदान में है. कांग्रेस ने अपने कोटे की चार सीटों में दलित-ओबीसी-भूमिहार और ठाकुर एक-एक उम्मीदवार है. इस तरह सपा प्रमुख अखिलेश यादव पीडीए फॉर्मूले को तहत सियासी बिसात पूर्वांचल में बिछाया है. ऐसे में ओम प्रकाश राजभर से लेकर अनुप्रिया पटेल और संजय निषाद जैसे बीजेपी के सहयोगी नेताओं की असल परीक्षा होनी है, क्योंकि तीनों ही नेता ओबीसी समुदाय के अलग-अलग जातियों के बीच आधार रखते हैं.