भारत विविधताओं का देश है। यहाँ हर कुछ किलोमीटर पर भाषा, बोली और रहन-सहन से लेकर खान-पान तक भी बदल जाता है। राज्य तो छोड़ दीजिए, हर एक जिले की अलग विशेषता है। लगभग 800 भाषाओं वाले इस देश में कई भाषाएँ विदेश से भी आई हैं, क्योंकि भारत ने सभी समुदायों को गले लगाया है। मुसीबत के वक्त उन्हें घर दिया है। क्या आपको पता है कि भारत में चीनी भाषा में भी एक अख़बार का संचालन हो रहा था?
हालाँकि, अब खबर ये है कि भारत के एकमात्र चीनी भाषा का अखबार अब बंद हो गया है। ये अख़बार चीन की मंदारिन भाषा में छपता था। ‘सेओंग पॉव’ नामक इस समाचारपत्र को ‘द ओवरसीज चायनीज कॉमर्स ऑफ इंडिया’ के नाम से भी जाना जाता था। ये कोलकाता में प्रकाशित होता था। इसका कारण है कि कोलकाता में एक ऐसे क्षेत्र भी है, जिसे ‘मिनी चीन’ कहते हैं और वहाँ चीनी भाषा जानने वालों की जनसंख्या रही है।
इस अख़बार का सर्कुलेशन लगातार कम हो रहा था और अब ये लगभग बंद हो गया है। मार्च 2020 में जब वैश्विक कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन लगा था, उससे पहले ही इस अख़बार का अंतिम संस्करण प्रिंट हुआ था। कब हुआ था, ये तारीख़ किसी को याद नहीं है। एक तो कोरोना महामारी की इस पर मार पड़ी, ऊपर से इसके संपादक कुओ-त्साई चांग की जुलाई 2020 में मौत हो गई। इस अख़बार की स्थापना सन् 1969 में चीनी समुदाय के नेता ली यूओन चीन द्वारा किया गया था।
इससे पहले ‘चायनीज जर्नल ऑफ इंडिया’ नाम का चीनी अख़बार छपता था। इसकी शुरुआत के 34 वर्ष बाद ‘सेओंग पॉव’ का प्रकाशन शुरू हुआ। इसे 4 पन्नों में प्राकशित किया जाता था। चूँकि खबरों की संख्या कम होती थी, इसीलिए चीन, ताइवान और हॉन्गकॉन्ग के अलावा कोलकाता के अंग्रेजी अख़बारों से खबरें लेकर इसमें डाला जाता था। उनका मंदारिन में अनुवाद किया जाता था। TOI की खबर के अनुसार, एक कचरा कारोबारी दीपू मिस्त्री ने बताया कि अब ये जगह शायद ही भविष्य में खुले।
वो कूड़े-कचरे की खोज में अक्सर अख़बारों के दफ़्तरों तक जाते रहे हैं, जहाँ से उन्हें पुराने अख़बार मिलते हैं। उन्होंने बताया कि इस ‘सेओंग पॉव’ के कार्यालय में कुछ कुर्सियाँ और डेस्क वगैरह थे, साथ ही प्रिंटर और कम्प्यूटर भी था। लेकिन, संपादक की मृत्यु के बाद कर्मचारियों ने यहाँ आना बंद कर दिया और कई फर्नीचर चोरी हो गए। ‘चायनीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ के अध्यक्ष चेन याओ हुआ इस अख़बार के नियमित ग्राहक थे, जिनके पास हर सुबह कॉपी पहुँचती थी
उसे टोंग अचीव या ‘Achhi’ के नाम से भी जाना जाता है। तूफ़ान में फँसने के बाद उसने कोलकाता हार्बर (तब कलकत्ता) में शरण ली। तब यहाँ के ब्रिटिश गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंगस से उसे सहायता मिली। कोलकाता के अचीपुर में उसे जमीन दी गई। इसमें उसने सुगर प्लांटेशन किया। चीनी मिल के अलावा सूअरों का एक फ़ार्म भी बनाया गया। उसे चीन से मजदूर यहाँ लाने की इजाजत भी मिल गई। कभी यहाँ 30,000 चीनी मजदूर रहा करते थे।
उन्होंने बताया कि कोलकाता के तंगरा में चीनी लोगों की संख्या घट रही है, इसीलिए ऐसे योग्य लोग नहीं मिल रहे हैं जो इस अख़बार को चला सकें। उन्होंने बताया कि यहाँ के अधिकतर युवा न तो चीनी पढ़ सकते हैं और न ही लिख सकते हैं। उन्होंने दिवंगत संपादक के अस्सिस्टेंट हेलेन यांग को नए लोगों की भर्ती कर के उन्हें मंदारिन सिखाने को कहा, क्योंकि वो इस भाषा की ट्यूशन भी देती रही हैं। लेकिन, ये योजना सफल नहीं हुई क्योंकि तंगरा में अब हक्का चीनियों की जनसंख्या है जो मंदारिन नहीं समझती।
चीनी मीडिया संस्थान SCMP ने दिसंबर 2020 में प्रकाशित एक लेख में ही बताया था कि ये अख़बार बंद हो रहा है। इसके जो संपादक थे, वो सुबह के 8 बजे साइकिल से दफ्तर पहुँच जाते थे। इसके बाद वो दिन की सभी बड़ी खबरों को खँगालते थे। इसके बाद वो अगले संस्करण की तैयारियों में जुट जाते थे। बता दें कि शुरुआत में इस अख़बार को हस्तलिखित रूप में प्रकाशित किया जाता था। 4-5 लोग मिल कर 2000 कॉपी छापते थे।
महामारी से पहले पाठकों की संख्या कम होने के बावजूद अख़बार चल रहा था, क्योंकि इसके संपादक हमेशा अपने जड़ों से जुड़े रहने पर जोर देते थे। जिन्होंने इस अख़बार की स्थापना की थी, उनके पोते अब कोलकाता में एक रेस्टॉरेंट चलाते हैं। इससे पहले जो भारत में चीनी भाषा का पहला अख़बार छपता था, वो 2001 में कई समस्याओं के कारण बंद हो गया था। ‘सेओंग पॉव’ की भी कभी बहुत ज़्यादा माँग हुआ करती थी।
लॉकडाउन से पहले हालत ऐसी हो गई थी कि मात्र 200 प्रतियाँ ही प्रकाशित होती थीं और 2.50 रुपए में एक बिकती थी। अब भारत में भी चीनी मूल के छात्र मंदारिन की जगह अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हैं। बता दें कि भारत में चीनी संख्या के बसने की कहानी भी रोचक है। ये बात अंग्रेजों के जमाने की है। यांग डज़हाओ नाम का एक व्यापारी तब जहाज से यात्रा कर रहा था। इस दौरान वो बंगाल की खाड़ी में एक तूफ़ान में फँस गया।
तंगरा और तिरेट्टा बाजार को बंगाल के चाइनाटाउन के रूप में जाना जाता था। कभी यहाँ चीनी भाषा के कई स्कूल भी हुआ करते थे। ‘पेई मेई’ नाम का एक स्कूल छात्रों की संख्या कम होने के कारण बंद हो चुका है। यहाँ से सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में चमड़ी बनाने वाली 230 फैक्ट्रियों को कहीं और भेजने का आदेश दिया, जिसके बाद चीनी जनसंख्या घटती चली गई। कइयों ने अपना प्रोफेशन ही बदल लिया। अब ये चाइनाटाउन नहीं रहा।
जो चीनी अख़बार बंद हुआ है, उसके पहले पेज पर अंतरराष्ट्रीय खबरें होती थीं, दूसरे पर चीन और कोलकाता के चीनियों की खबरें, तीसरे पर स्वास्थ्य और बच्चों वाली खबरें होती थीं और अंतिम पेज पर हॉन्गकॉन्ग, मकाउ और ताइवान की खबरें होती थीं। बता दें कि सेन्ट्रल कोलकाता में एक चीनी ब्रेकफास्ट बाजार भी है। वहाँ भी पिछले एक दशक में चीनी रेस्टॉरेंट्स की संख्या घटी है। अब चीनी प्रभाव भी कम हो रहा है।