आज से शुरू हुए 18वीं लोकसभा के पहले सत्र में सभी सांसदों को शपथ दिलाई जाएगी तो नए स्पीकर का चुनाव भी होगा. लंबे समय बाद आधिकारिक रूप से लोकसभा में विपक्ष के नेता का चयन भी मावलंकर रूल के तहत होगा. इस रूल के हिसाब से लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद पाने के लिए किसी भी पार्टी के पास कम से कम 10 फीसदी सीटें होनी चाहिए. यह नियम लोकसभा के पहले स्पीकर गणेश वासुदेव (जीवी) मावलंकर ने बनाया था, जिन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा के जनक की उपाधि दी थी. इस मौके पर आइए जानते हैं कौन थे जीवी मावलंकर और उनके नाम क्या उपलब्धियां दर्ज हैं.
गणेश वासुदेव मावलंकर का जन्म 27 नवंबर 1888 को बड़ौदा में एक मराठी परिवार में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा बड़ौदा में हासिल करने के बाद साल 1902 में वह आगे की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद चले गए. तब उनकी उम्र 14 साल थी. साल 1908 में उन्होंने गुजरात कॉलेज से स्नातक की उपाधि हासिल की और 1909 में वह दक्षिणा फेलो हो गए. इसके बाद कानून की पढ़ाई शुरू कर दी. कानून की डिग्री मिलने के बाद 1913 में उन्होंने वकालत शुरू कर दी और देखते ही देखते बड़े वकील के रूप में मशहूर होते गए.
सामाजिक कार्यों के चलते गांधी से जुड़े
वकालत के साथ ही साथ वह सामाजिक गतिविधियों में भी खूब सक्रिय रहते थे. इसके चलते वह कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े. साल 1913 में गुजरात एजुकेशन सोसाइटी के मानद सचिव बनाए गए तो 1916 में गुजरात सभी के भी सचिव चुने गए. इन्हीं सामाजिक गतिविधियों के चलते वह महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल के संपर्क में आए.
देश की आजादी के लिए महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो जीवी मावलंकर भी स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े. फिर राजनीति में आ गए. कुछ समय के लिए वह स्वराज पार्टी में भी रहे फिर वापस कांग्रेस में आ गए थे. साल 1921-22 में वह गुजरात प्रॉविंशियल कांग्रेस कमेटी के सचिव चुने गए. 1919 से 1937 तक अहमदाबाद म्युनिसिपैलिटी के सदस्य और 1930 से 33 तक और 1935-36 तक इसके अध्यक्ष भी रहे.
पहली बार बॉम्बे विधानसभा के स्पीकर बने
नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने हिस्सा लिया और कांग्रेस के साथ मिलकर 1934 के चुनावों का बहिष्कार किया था. स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी गतिविधियों के कारण वह कुल छह साल तक जेल में भी रहे. हालांकि, साल 1937 में हुए चुनाव में वह बॉम्बे प्रॉविंस के चुनाव में खड़े हुए विधानसभा के लिए चुने गए. इसके बाद उनको विधानसभा का स्पीकर चुना गया और वह इस पद पर साल 1946 तक रहे.
पहली लोकसभा में सबकी पसंद बने मावलंकर
बॉम्बे विधानसभा के बाद वह सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के लिए चुने गए और बाद में तो उनको संविधान सभा का सभापति भी चुना गया था. उन्होंने संविधान लागू होने तक इस पद की गरिमा को नई ऊंचाइयां तक पहुंचाया. वह 15 अगस्त 1947 तक इस पद पर रहे, जब तक कि देश आजाद नहीं हो गया और सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली भंग नहीं हो गई. 26 नवंबर 1949 को उन्हें एक बार फिर से प्रॉविजनल पार्लियामेंट का स्पीकर चुनाव गया और इस पद पर वह साल 1952 तक रहे. आजादी के बाद हुए चुनाव के बाद देश में पहली बार इसी साल लोकसभा का गठन हुआ तो मावलंकर ही स्पीकर के रूप में सभी की पहली पसंद बने.
लोकसभा स्पीकर की निष्पक्षता की मिसाल बने
लोकसभा का पहला अध्यक्ष चुने जाने के बाद जीवी मावलंकर ने कई सुधार किए. सबसे पहले तो विधानसभा स्पीकर से लेकर लोकसभा स्पीकर तक के रूप में उन्होंने निष्पक्षता की मिसाल कायम की और अपने कार्यकाल के दौरान पार्टी की राजनीति से दूर रहे. उन्होंने ही लोकसभा में प्रश्नकाल और राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा और धन्यवाद प्रस्ताव की शुरुआत की. यह उन्हीं का बनाया नियम है कि किसी भी पार्टी को लोकसभा में संसदीय दल के रूप में नामित होने के लिए उसके पास सदन की कुल सदस्य संख्या का कम से कम 10 प्रतिशत होना चाहिए. यही नहीं, विपक्ष के सबसे बड़े संसदीय दल के नेता को नेता विपक्ष नामित करने का चलन भी तभी से चला आ रहा है. इसीलिए पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनको लोकसभा के जनक की उपाधि दी थी.
कई कमेटियों की शुरुआत की
साल 1956 तक स्पीकर के पद पर रहे जीवी मावलंकर ने हर तरह से इस पद की गरिमा बनाए रखी और अपने उत्तराधिकारियों के लिए कई मिसालें कायम कीं. उन्होंने ही रूल्स कमेटी, बिजनेस एडवायजरी कमेटी, कमेटी ऑफ प्रिविलेजेज, कमेटी ऑन सबऑर्डिनेट, प्राइवेट मेंबर्स बिल्स एंड रीलॉल्यूशन कमेटी, कमेटी ऑन अबसेंस ऑफ मेंबर्स फ्रॉम द सिटिंग्स ऑफ द हाउस, कमेटी ऑन गवर्नमेंट एश्योरेंस, लोकसभा सदस्यो के वेतन और भत्तों पर संयुक्त समिति आदि की शुरुआत की थी. लोकसभा स्पीकर रहते ही जनवरी 1956 में उनको हृदयाघात का सामना करना पड़ा और 27 फरवरी 1956 को अहमदाबाद में उनका निधन हो गया.