स्नेहलता रेड्डी की कहानी भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय—आपातकाल—की उन अमानवीय यातनाओं की गवाही है, जहाँ निर्दोष लोगों को सत्ता के विरोध का मूल्य अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। स्नेहलता एक प्रतिष्ठित कन्नड़ अभिनेत्री, कुशल भरतनाट्यम नृत्यांगना और सामाजिक रूप से सक्रिय महिला थीं। उनका अपराध मात्र इतना था कि वह समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस की करीबी मित्र थीं। इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल के दौरान विरोधियों को कुचलने के क्रम में स्नेहलता को 2 मई 1976 को डायनामाइट केस में फर्जी आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया। उन पर आरोप लगाया गया कि वे दिल्ली स्थित संसद भवन और अन्य प्रतिष्ठित इमारतों को बम से उड़ाने की साजिश में शामिल थीं। उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120 और 120A के तहत आरोप लगे, लेकिन अदालत में ये आरोप कभी सिद्ध नहीं हुए। बावजूद इसके, उन्हें ‘मीसा’ (Maintenance of Internal Security Act) के तहत 8 महीने तक जेल में रखा गया, जो उस समय सरकार की मनमानी गिरफ्तारी और अनिश्चितकालीन नजरबंदी का सबसे बड़ा हथियार था।
बेंगलुरु की जेल में उन्हें एक ऐसी तंग कोठरी में रखा गया जहाँ ना रोशनी ठीक से पहुँचती थी और ना हवा। पेशाबघर की जगह फर्श में एक छेद था और दरवाजे पर लोहे की जाली थी, जिससे उनकी निजता भी सुरक्षित नहीं थी। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी उस समय उन्हीं के पास की कोठरी में बंद थे। बाद में इन नेताओं ने स्वीकार किया कि उन्हें रात में एक महिला की दर्दभरी चीखें सुनाई देती थीं, जो स्नेहलता की थीं। वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु दंडवते ने भी अपनी किताब में स्नेहलता की चीखों का ज़िक्र किया है। स्नेहलता को क्रूरतापूर्वक मानसिक और शारीरिक यातनाएँ दी गईं, और लगातार उनकी चिकित्सा उपेक्षा की गई, जबकि वे अस्थमा की मरीज थीं।
इन परिस्थितियों में भी स्नेहलता ने हार नहीं मानी। उन्होंने अन्य महिला कैदियों को संगठित किया, उनका हौसला बढ़ाया, जेल प्रशासन के खिलाफ भूख हड़ताल की, जिससे कैदियों के साथ होने वाली मारपीट में कमी आई और भोजन की गुणवत्ता में सुधार हुआ। जेल में लिखी एक छोटी डायरी में उन्होंने लिखा:
“क्या मानव शरीर को अपमानित किया जाना चाहिए? इन विकृत तरीकों के लिए कौन जिम्मेदार है?”
यातनाओं से उनका शरीर दिन-ब-दिन टूटता गया। अंततः 15 जनवरी 1977 को उन्हें पैरोल पर रिहा किया गया, लेकिन केवल 5 दिन बाद 20 जनवरी को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। एक सशक्त, आत्मनिर्भर, भारतीय संस्कृति की प्रतीक महिला की इस तरह की मृत्यु ने उस समय के सत्तावाद की अमानवीयता को नंगा कर दिया।
उनकी बेटी नंदना रेड्डी ने 2015 में ‘द हिंदू’ में एक लेख में लिखा कि स्नेहलता ने औपनिवेशिक सोच का शुरू से विरोध किया था। कॉलेज के समय उन्होंने अपने भारतीय नाम को पुनः अपनाया, केवल भारतीय पोशाकें पहनीं, और एक बड़ा ‘बॉटू’ (कुंकुम तिलक) लगाती थीं। उन्होंने भरतनाट्यम गुरु किट्टप्पा पिल्लई से नृत्य सीखा और एक श्रेष्ठ कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाई।
स्नेहलता रेड्डी का जीवन और बलिदान हमें याद दिलाता है कि जब सत्ता निरंकुश होती है, तब सबसे पहले विचार, कला और इंसानियत को रौंदा जाता है। लेकिन उनका साहस इस बात की मिसाल बन गया कि अत्याचार के खिलाफ खड़े रहना भी एक तरह का प्रतिरोध है—और यह प्रतिरोध, इतिहास में अमिट रहता है।
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