गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर बसे प्रयागराज में इस बार 144 साल बाद महाकुंभ का आयोजन होने जा रहा है। साधु-संत कुंभ क्षेत्र में पहुँच चुके हैं। शास्त्रों में महाकुंभ की महिमा अपार बताई जाती है। यही कारण है कि हर सनातनी अपने जीवन में कम-से-कम एक बार प्रयागराज कुंभ में स्नान ज़रूर करना चाहता है। त्रिवेणी पर सिर्फ स्नान का ही महात्म्य नहीं है, बल्कि अक्षयवट आदि के दर्शन भी महत्वपूर्ण हैं।
कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक एवं सांस्कृतिक समागम है, जो पूर्णत: वैज्ञानिक अवधारणाओं पर आधारित है। खगोल विज्ञान के अनुसार, ग्रह-नक्षत्रों के विशेष सिद्ध में आने के बाद अर्ध कुंभ, पूर्ण कुंभ और महाकुंभ का आयोजन होता है। वैसे कुंभ के आयोजन के बारे में सबसे पुरानी लिखित जानकारी चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों से मिलती है, लेकिन धार्मिक ग्रंथों में इसके बारे में सृष्टि के प्रारंभ को माना गया है।
अथर्ववेद में कुंभ मेले के वर्णन की बात कही जाती है। अथर्ववेद में ‘चतुर्था ददामि’ और ‘पूर्णा: कुंभोषधिकाल आहितस्तं’ का जिक्र है। हालाँकि, 14वीं-15वीं शताब्दी के विद्वान सायण और 17वीं शताब्दी के विद्वान उद्गीथ बताते हैं कि पहला श्लोक विश्तारी यज्ञ की महिमा में एक भजन से संबंधित है और दूसरा ‘ईश्वरीय समय’ से संबंधित है। यहाँ, कुंभ का अर्थ है ‘पानी का घड़ा’, न कि त्योहार।
पुराणों में कुंभ का विस्तार से वर्णन
जो भी हो, लेकिन कुंभ का वर्णन पुराणों में है। मत्स्य पुराण में इसकी कहानी है। जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें से एक रत्न के रूप में अमृत कलश भी निकला। अमृत असुर ना पी जाएँ, इसलिए देवता इसे लेकर भागने लगे और असुर उनका पीछा करने लगे। इस दौरान अमृत की बूँदे प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर गईं। जहाँ-जहाँ अमृत की बूँदे गिरीं, वहाँ-वहाँ आज कुंभ मेले का आयोजन होता है।
ऐसा ही वर्णन स्कंद पुराण एवं पद्म पुराण में है। पद्म पुराण में कहा गया है, “पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्चते। चतु:स्थले नितनात् सुधा कुम्भस्थ भूतले।। चन्द्र प्रस्रवणा रक्षां सूर्यों विस्फोटनात् दधौ। दैत्येभ्यश्च गुरु रक्षां सौरिदेवेंद्रजात् भयात्।।” इसका अर्थ हुआ कि पृथ्वी पर कुम्भयोग के चार प्रकार होते हैं। चार स्थानों पर हर समय अमृत (सुधा) का प्रवाह होता है। यहाँ सूर्य और चंद्रमा के माध्यम से रक्षा का प्रवाह होता है।
कुंभ को लेकर स्कंद पुराण में कहा गया है, “माघे मासे गंगे स्नानं यः कुरुते नरः। युगकोटिसहस्राणि तिष्ठंति पितृदेवताः।।” अर्थात, माघ महीने में गंगा में स्नान करने वाले व्यक्ति के पितर स्वर्ग में वास करते हैं।
वहीं, पद्म पुराण में कहा गया है, “त्रिषु स्थलेषु यः स्नायात् प्रयागे च पुष्करे। कुरुक्षेत्रे च धर्मात्मा स याति परमं पदम्।।” अर्थात, जो धर्मात्मा प्रयाग, पुष्कर और कुरुक्षेत्र में स्नान करता है वह परम धाम जाता है।
गरुण पुराण में कहा गया है, “अग्निष्टोमसहस्राणि वाजपेयशतानि च। कुंभस्नानस्य कलां नार्हंते षोडशीमपि।।” (हजारों अग्निष्टोम और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी कुंभ स्नान के सोलहवें भाग के बराबर नहीं हैं।)
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, “प्रयागे माघमासे तु स्नात्वा पार्थिवमर्दनः। सर्वपापैः प्रमुच्येत पितृभिः सह मोदते।।” अर्थात, माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से सभी पापों से मुक्त हो जाता है और उसके पितर प्रसन्न होते हैं।
अग्नि पुराण के अनुसार, “कुंभे कुंभोद्भवः स्नात्वा प्रायच्छति हि मानवान्। ततः परं न पापानि तिष्ठन्ति शुभकर्मणाम्।।” अर्थात, कुंभ में स्नान करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है और वह शुभ कर्मों की ओर अग्रसर होता है।
विष्णु पुराण के अनुसार, “अयं कुंभः परं पुण्यं स्नानं येन कृतं शुभम्। सर्वपापक्षयं याति गच्छते विष्णुसन्निधिम्।।” अर्थात, कुंभ में स्नान अत्यंत पुण्यदायक है और आदमी विष्णु लोक जाता है।
श्रीमदभागवत पुराण के अनुसार, “तत्रापि यः स्नानकृत् पुण्यकाले। गंगा जलं तीर्थमथाधिवासम्।। पुण्यं लभेत् कृतकृत्यः स गत्वा। वैकुण्ठलोकं परमं समेति।।” अर्थात, पवित्र समय में गंगा में स्नान करने वाला व्यक्ति पुण्य प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम जाता है।
महाभारत के वन पर्व में कहा गया है, “त्रिपुरं दहते यज्ञः स्नानं तीर्थे तु दहते। सर्वपापं च तीर्थे स्नात्वा सर्वं भवति शुद्धये।।”
अर्थात, यज्ञ तीनों लोकों को शुद्ध करता है, लेकिन तीर्थ में स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति पूरी तरह शुद्ध हो जाता है। कूर्म पुराण में कहा गया है कि कहता है कि कुंभ स्नान से सारे पाप नष्ट होते हैं। कुंभ में पापों को नष्ट करने और स्नान को फलदायी बनाने के लिए पाप नहीं करने का भी संकल्प लेना चाहिए।
सम्राट हर्ष के समय चीनी यात्री ने किया जिक्र
मस्त्य पुराण एवं पद्म पुराण के अलावा कुंभ का वर्णन स्कंद पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्म पुराण, कूर्म पुराण, पद्म पुराण, भागवत पुराण, विष्णु पुराण, गरुड़ पुराण और वाल्मीकि रामायण आदि में भी है। मान्यताओं के अनुसार, कुंभ का आयोजन अनादि काल से होता है। वहीं, कुछ इसे सिंधु सभ्यता से भी पुराना बताते हैं। कहा जाता है कि यह हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सभ्यता से 1,000 साल पुरानी है।
ईसा के जन्म से 500 पूर्व हुए परमार वंश के सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में शामिल रहे कालिदास ने अपनी अमर कृति रघुवंशम में भी इसका जिक्र किया है। सम्राट हर्षवर्धन बैंस, जिन्हें इतिहास में सम्राट हर्ष के नाम भी जानते हैं, के शासनकाल में 629-645 ईस्वी तक भारत में रहे चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (या Xuanzang) ने भी कुंभ का वर्णन किया है। मुगल काल में इसको लेकर कई जगह वर्णन है।भारतीय व्यंजन रेसिपी
यह माना जाता है कि अधिकतर पुराण बाद के काल में लिखे गए हैं। कई तो 15-16वीं सदी में भी लिखे गए। कुछ धर्मग्रंथों में कहा गया है कि सबसे पहले कुंभ मेले का आरंभ सम्राट हर्षवर्धन ने किया था। ह्वेन त्सांग अपनी यात्रा के दौरान प्रयागराज आया था और उसने अपनी यात्रा वृतांत में लिखा है कि सम्राट हर्षवर्धन हर पाँच साल पर नदियों के संगम पर आयोजन करते थे और वहाँ गरीबों को दान देते थे।
अक्षयवट का महात्म्य, सीएम योगी ने मुगलकाल के प्रतिबंध हटाए
कहा जाता है कि प्रयागराज कुंभ में स्नान का फल तभी मिलता है, जब वहाँ स्थित अक्षयवट का दर्शन किया जाए। संगम तट पर एक प्राचीन किला है, जिसमें यह अक्षय वट स्थित है। अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी वर्णन है। कहा जाता है कि यह वट सृष्टि के विकास और प्रलय का साक्षी रहा है। इसका कभी नाश नहीं होता है। अकबर ने अक्षयवट के दर्शन-पूजन पर रोक लगा दी थी।
इसके बाद दिवंगत सीडीएस जनरल बिपिन रावत ने यहाँ आकर पातालपुरी मंदिर का दर्शन किया था और बाद में उनके प्रयास से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साल 2018 में यहाँ आम लोगों के दर्शन पर से प्रतिबंध हटा दिया था। बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी यहाँ आए और इस अनादि अक्षयवट का दर्शन किया था।
इस वट को बारे में कहा जाता है कि इस वृक्ष को माता सीता ने आशीर्वाद दिया था कि प्रलय काल में जब धरती जलमग्न हो जाएगी और सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी वह हरा-भरा रहेगा। इसके अलावा, एक मान्यता यह भी है कि बाल रूप में भगवान कृष्ण इसी वट वृक्ष पर विराजमान हुए थे। तब से श्रीहरि इसके पत्ते पर शयन करते हैं। पद्म पुराण में अक्षयवट को तीर्थराज प्रयाग का छत्र कहा गया है।
ह्वेन त्सांग ने अक्षयवट के बारे में लिखा है कि नगर में एक मंदिर है और उसमें एक विशाल वट है। इसकी शाखाएँ और पत्तियाँ दूर दूर तक फैली हुई हैं। इस वट का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। कहा जाता है कि भारद्वाज मुनि ने भगवान श्रीराम से कहा था कि वे दोनों भाई गंगा-यमुना के संगम पर जाएँ और वहाँ बहुत बड़ा वट वृक्ष मिलेगा। वहीं, से दोनों भाई यमुना को पार कर जाएँ।
भारद्वाज मुनि अक्षयवट के बारे में भगवान राम से कहते हैं कि वह चारों तरफ से दूसरे वृक्षों से घिरा होगा। उसकी छाया में बहुत से सिद्ध पुरुष रहते होंगे। वहाँ पहुँचकर वटवृक्ष से आशीर्वाद की कामना करनी चाहिए। कहा जाता है माता सीता ने ऐसा ही किया और साथ ही अक्षयवट को आशीर्वाद दिया कि संगम स्नान करने के बाद जो कोई अक्षयवट का पूजन-दर्शन करेगा, उसे ही स्नान का फल मिलेगा।
कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि के आरंभ में प्रयागराज के संगम पर यज्ञ आरंभ किया था। इसमें भगवान विष्णु यजमान बने थे और भगवान शिव देवता बने थे। यज्ञ के अंत में तीन देवों ने अपनी शक्तिपुँज से एक वृक्ष उत्पन्न किया, जिसे आज अक्षयवट कहा जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, इस वटवृक्ष की उम्र 5270 वर्ष बताई जाती है। कहा जाता है कि इस अक्षयवट की जड़े पाताल लोक में स्थित हैं।
कहा जाता है कि अक्षयवट को मुगलकाल में इसे खत्म करने के प्रयास किए गए। इसके अलावा भी कई मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इसे काट एवं जलाकर नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन वे नाकाम रहे। माना जाता है कि इस तरह के वट वृक्ष पृथ्वी पाँच हैं। पहला प्रयागराज में अक्षयवट, दूसरा उज्जैन में सिद्धवट, तीसरा वृंदावन में वंशीवट, चौथा गया में मोक्षवट और पाँचवाँ पंचवटी में पंचवट।
कब आयोजित होता है महाकुंभ, कुंभ और अर्धकुंभ
इस बार प्रयागराज में 144 साल बाद लगने वाला कुंभ लग रहा है। दरअसल, कुंभ पाँच प्रकार का होता है- महाकुंभ, पूर्ण कुंभ, अर्ध कुंभ, कुंभ और माघ कुंभ, जिसे माघ मेला भी कहते हैं। 144 बाद लगने वाले महाकुंभ का आयोजन सिर्फ प्रयागराज के संगम पर ही होता है। शास्त्रों के अनुसार, जब बृहस्पति वृषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है।
पूर्ण कुंभ 12 वर्षों में आयोजित किया जाता है। पूर्ण कुंभ का आयोजन 4 तीर्थस्थलों- हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयागराज में होता है। हरिद्वार गंगा नदी, उज्जैन शिप्रा नदी, नासिक गोदावरी नदी और प्रयागराज गंगा, यमुना एवं सरस्वती नदियों के संगम पर बसा है। जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है। .
वहीं, अर्ध कुंभ का आयोजन हर 6 साल पर होता है। इसका आयोजन केवल दो स्थानों- प्रयागराज और हरिद्वार में होता है। माघ कुंभ हर साल सिर्फ प्रयागराज में आयोजित किया जाता है। जब सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करते हैं तो उज्जैन में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं। जब सूर्य और बृहस्पति सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, तब यह कुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है