तीर्थराज प्रयागराज में हर 12 साल बाद कुँभ मेले का आयोजन होता है। प्रयागराज महाकुंभ 2025 को लेकर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है, लेकिन हम बताने चल रहे हैं आजादी के बाद आयोजित पहले कुंभ मेले के बारे में, जहाँ प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उस समय राष्ट्रपति रहे डॉ राजेंद्र प्रसाद भी पहुँचे थे। लेकिन उनका पहुँचना इतना दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि 1000 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी और 2000 से ज्यादा लोग घायल हो गए।
करीब 1000 लोगों के मारे जाने की वजह थी, भगदड़ का मचना.. जिसके बारे में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग दावे किए जाते हैं। हालाँकि हम प्रकाशित कर रहे हैं वो सबसे विश्वसनीय आँखों देखी, जिसके हमेशा से छिपाने की कोशिश की गई।
1954 के प्रयागराज कुंभ में मची भगदड़ भारतीय इतिहास के सबसे बड़े हादसों में से एक मानी जाती है। यह घटना स्वतंत्र भारत में कुंभ मेले के पहले आयोजन के दौरान हुई, और इसमें लगभग 1000 लोगों की मौत हुई थी। इस हादसे का सीधा संबंध तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनकी कुंभ में निजी रुचि से जोड़ा जाता है।
नेहरू का इलाहाबाद कनेक्शन और उनकी भागीदारी
- 1954 का कुंभ नेहरू के गृहनगर इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हो रहा था, और यह पहली बार था जब आजाद भारत में कुंभ का आयोजन हुआ।
- मौनी अमावस्या के दूसरे शाही स्नान के दौरान नेहरू ने कुंभ में शामिल होने का फैसला किया, जिसके कारण प्रशासन पर भारी दबाव पड़ा।
- नेहरू के स्नान में शामिल होने की खबर ने लाखों श्रद्धालुओं को एक ही समय में संगम पर पहुँचने के लिए प्रेरित किया, जिससे भयंकर भीड़ का सामना करना पड़ा।
भगदड़ और प्रशासन की नाकामी
- भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त प्रबंध नहीं थे।
- भारी भीड़ के कारण घाट पर भगदड़ मच गई, जिसमें लगभग 1000 लोग मारे गए, और कई घायल हुए।
- सुरक्षा और भीड़ प्रबंधन में प्रशासन की नाकामी इस त्रासदी का मुख्य कारण बनी।
घटना को दबाने के प्रयास
- तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस घटना को दबाने की भरसक कोशिश की।
- इसे केवल कुछ ‘भिखारियों की मौत’ कहकर प्रचारित किया गया, ताकि त्रासदी की गंभीरता को कम करके दिखाया जा सके।
- लेकिन आनंद बिहार पत्रिका के एक पत्रकार ने इस घटना को उजागर कर दिया। उन्होंने भगदड़ की तस्वीरें प्रकाशित कीं, जो सरकार की सच्चाई छिपाने के प्रयासों को बेनकाब कर गईं।
गोविंद बल्लभ पंत की प्रतिक्रिया
- उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत थे। हादसे के चलते वह काफी निराश और नाराज हुए।
- पत्रकार की रिपोर्टिंग पर पंत ने गुस्से में आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया, जिसे बाद में आलोचना का सामना करना पड़ा।
राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रभाव
- यह घटना स्वतंत्र भारत में प्रशासनिक कुप्रबंधन का एक बड़ा उदाहरण बनी।
- कुंभ जैसे आयोजनों में भीड़ प्रबंधन और सुरक्षा उपायों की अनदेखी के परिणामस्वरूप यह त्रासदी घटित हुई।
- नेहरू की इस घटना में भूमिका, उनकी भागीदारी, और सरकार की नाकामी पर दशकों तक बहस चलती रही।
1954 की इस घटना ने प्रशासनिक तैयारियों और बड़े जनसमूहों के आयोजन में सख्त प्रबंधन की आवश्यकता को उजागर किया, जो आज भी बड़े आयोजनों के लिए एक सीख का काम करती है।
कैसे गई थी कुंभ 1954 में हजार से ज्यादा लोगों की जान?
ये दिन था 3 फरवरी 1954… मौका था कुंभ के दूसरे शाही स्नान यानी मौनी अमावस्या का। जवाहरलाल नेहरू खुद ही प्रयाग पहुँचे थे और उनके साथ थे राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद। समय था सुबह के करीब 10.20 बजे का, जब नेहरू जी और राजेंद्र बाबू की कार त्रिवेणी रोड से आई और बैरियर को पार करके किला घाट की ओर बढ़ी। इस दौरान नेहरू को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी, तो मेले में आ रहा हुजूम और मेले से निकल रहा हुजूम आमने-सामने आ गया। भगदड़ मच गई। लोग खाईं से नीचे गिरने लगे, तो पास का ही बड़ा कुआँ लाशों से भर गया।
आनंद बाजार पत्रिका के लिए मेला कवर कर रहे फोटो जर्नलिस्ट एनएन मुखर्जी ने साल 1989 में ‘छायाकृति’ नाम की पत्रिका में छपे अपने संस्मरण में इन बातों को विस्तार से बताया है। दरअसल, इस मेले में हुए हादसे की भयावहता की पोल उन्हीं की तस्वीर से खुली थी। वो हादसे के समय वो संगम चौकी के पास एक टॉवर पर खड़े थे।
उन्होंने अपने संस्मरण में बताया था कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को उसी दिन संगम स्नान के लिए आना था। इसलिए सभी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी उनके आगमन की तैयारियों में व्यस्त थे। लेकिन सुबह 10.20 बजे जब दोनों कार से किला घाट की तरफ बढ़े, तो भीड़ बेकाबू हो गई। हर तरफ लाशें थी। वो खुद कई लाशों के ऊपर से चढ़ कर आगे गए थे और तस्वीरें खींची थी।
उन्होंने हैरानी जताते हुए लिखा था कि इस बड़ी घटना के बावजूद हादसे वाली जगह से दूर रहे शीर्ष अधिकारी सरकारी आवास पर शाम 4 बजे तक चाय-नाश्ते में व्यस्त रहे, और उन्हें इस हादसे के बारे में जानकारी तक नहीं मिली। वहीं, जब एनएन मुखर्जी करीब 1 बजे अपने दफ्तर पहुँचे, जहाँ संपादक समेत तमाम पत्रकार साथी उनके जिंदा बचने पर हैरानी जताते हुए उनके आने पर खुशी जताई।
ये मामला अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में न जाए, इसलिए उस समय की सरकार ने इसे ‘कुछ भिखारियों की मौत’ कहकर खारिज करने की कोशिश की। लेकिन एनएन मुखर्जी ने वो तस्वीरें अधिकारियों के सामने रख दी, जिसमें कई महिलाएँ महँगे कपड़े और गहने पहने हुई थी, जिससे साफ जाहिर होता था कि मृतक कोई भिखारी नहीं थे, बल्कि वो संपन्न परिवारों से थे और सरकारी अव्यवस्था के शिकार हुए थे।
इस घटना में मारे गए लोगों के शव किसी को दिए नहीं गए, बल्कि ढेर के ढेर लगाकर सामूहिक रूप से जला दिए गए। एनएन मुखर्जी ने बताया था कि वो किसी तरह से उन शवों के ढेर के पास पहुँचे थे। उन्होंने पुलिसकर्मी के पैर पकड़ते हुए उससे से कहा था कि वो अपनी “मृत दादी को आखिरी बार देखना चाहते हैं”, जिसके बाद उन्हें शवों के पास जाने दिया गया। इस बीच, एनएन मुखर्जी ने चुपके से छोटे कैमरे से सामूहिक रूप से जलाए जा रहे शवों की तस्वीर खींच ली थी।
आनंद बाजार पत्रिका ने हादसे की खबर तस्वीर के साथ छापी। चूँकि बाकी जगहों पर बहुत कम खबर छपी, ऐसे में कॉन्ग्रेसी सिस्टम हैरान था कि हादसे की तस्वीर छप कैसे गई। उन तस्वीरों को देखते ही मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने चिल्लाकर कहा था, ‘कहाँ है ये ह$%#@मजा%$ फोटोग्राफर।’ एनएन मुखर्जी ने कहा कि इस बड़े हादसे से सबक लेकर सरकार ने आगे के सभी कुंभ मेले के लिए महीनों-सालों पहले से व्यवस्था करनी शुरू की थी। हालाँकि इस घटना के दौरान जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी को छिपाने के प्रयास अब तक चले आ रहे हैं।
पीएम मोदी ने मंच से की सही बात, तो गलत ठहराने में जुटा मीडिया गैंग
इस पूरी घटना को हमेशा से छिपाने की कोशिश होती रही है। तथ्यों को भी तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है। साल 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कौशांबी की एक जनसभा में इस वाकये का जिक्र किया था। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि प्रयागराज कुंभ 1954 की लोहमर्षक घटना को छिपाने, दबाने के प्रयास किए गए। इसके बाद तो मानों पालतू मीडिया गैंग को कोई चारा मिल गया हो। तुरंत ही ऐसे गवाह पेश कर दिए गए, जिनका उस स्थान से कोई खास लेना-देना नहीं था और जवाहर लाल नेहरू के नारनामे को छिपाने के लिए ‘सुनी-सुनाई’ बातों को छापा गया।