जनगणना 2027 और जातिगत गिनती — इनसाइट एनालिसिस
बड़ी खबर क्या है?
भारत सरकार ने पुष्टि की है कि अगली जनगणना 1 मार्च 2027 से दो चरणों में की जाएगी। खास बात यह है कि इस बार जातिगत आंकड़ों को भी दर्ज किया जाएगा।
हिमाचल, उत्तराखंड, लद्दाख और जम्मू-कश्मीर जैसे बर्फीले राज्यों में अक्टूबर 2026 से यह काम शुरू होगा।
जातिगत जनगणना क्यों अहम है?
- 70 साल बाद बदलाव:
आज़ादी के बाद से भारत में केवल एक बार, 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी। 2011 में सामाजिक-आर्थिक-जाति जनगणना (SECC) हुई थी, लेकिन उसका डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया। - नीतियों और योजनाओं को नया आधार:
सामाजिक न्याय की योजनाओं (OBC, SC, ST आरक्षण, छात्रवृत्ति, आर्थिक सहयोग) को डेटा आधारित बनाना संभव होगा। - 50% आरक्षण सीमा पर बहस:
यदि OBC की जनसंख्या वास्तविकता में अधिक पाई जाती है, तो मंडल आयोग की तर्ज पर आरक्षण की सीमा को 50% से ऊपर ले जाने की मांग जोर पकड़ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी केस (1992) में 50% सीमा तय की गई थी, लेकिन जातिगत जनगणना के डेटा के आधार पर संवैधानिक संशोधन की संभावना बढ़ सकती है।
राजनीतिक असर
- ओबीसी आधारित राजनीति को ताकत:
बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों में ओबीसी समूहों की राजनीति को नयी धार मिलेगी।
बिहार में 2023 की राज्य जातीय सर्वेक्षण के बाद इसकी मांग राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी। - केंद्र की रणनीति:
केंद्र सरकार ने पहले इस पर मौन साधा था, लेकिन अब जातिगत गिनती को हरी झंडी देना बताता है कि राजनीतिक दबाव और सामाजिक न्याय की मांगों को अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। - विपक्ष की पुरानी मांग:
कांग्रेस, आरजेडी, सपा, डीएमके जैसे दल जातीय जनगणना को लेकर मुखर रहे हैं। अब केंद्र के निर्णय से राजनीतिक संतुलन में बदलाव आ सकता है।
जनता के लिए क्या मायने रखता है?
- हर व्यक्ति की जाति, आर्थिक स्थिति, शिक्षा, पेशा, आय जैसे विवरण नीति निर्धारण के केन्द्र में होंगे।
- शहरी-ग्रामीण असमानता, पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति और नई सामाजिक रचना सामने आ सकती है।
संभावित चुनौतियां
- डेटा का दुरुपयोग — जातीय आंकड़ों को राजनीतिक रूप से इस्तेमाल करने की आशंका।
- सांप्रदायिक या जातीय ध्रुवीकरण — समाज में विभाजन की आशंका को लेकर चिंताएं।
- व्यवहारिक अड़चनें — ट्रेनिंग, डेटा की शुद्धता, टेक्नोलॉजी का उपयोग और गोपनीयता की चुनौती।