22 अप्रैल, 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। इस हमले में वीरगति को प्राप्त हुए लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की तस्वीर, जिसमें उनकी नवविवाहिता पत्नी हिमांशी नरवाल अपने पति के शव के पास बैठी रो रही थीं, देशभर में शोक और गुस्से का प्रतीक बन गई। इस एक तस्वीर ने न केवल हिमांशी की पीड़ा को उजागर किया, बल्कि पूरे राष्ट्र की भावना को झकझोर दिया। देशभर में लोगों ने इस हमले की निंदा करते हुए न सिर्फ आतंकियों और उनके सरपरस्त पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा जाहिर किया, बल्कि उन स्थानीय सहयोगियों पर भी नाराजगी जताई, जो आतंकी गतिविधियों में मददगार बने।
कुछ दिनों बाद, हिमांशी नरवाल ने मीडिया को एक बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि “मुस्लिम और कश्मीरी लोगों का विरोध नहीं होना चाहिए।” यह बयान कई लोगों को भावनात्मक रूप से सशक्त और संतुलित लगा। तथाकथित उदारवादी मीडिया और वामपंथी समूहों ने इस बयान को हाथोंहाथ लिया और इसे “अमन का संदेश”, “साहस की मिसाल” और “समझदारी की आवाज़” बताते हुए टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से प्रचारित किया। जो चैनल या प्लेटफॉर्म पाकिस्तान और स्थानीय आतंकियों की भूमिका पर केंद्रित रहे, उन्हें “कट्टरपंथी” और “घृणा फैलाने वाले” के रूप में टैग किया गया।
लेकिन कहानी ने उस समय एक और दुखद मोड़ लिया, जब लगभग डेढ़ महीने बाद हिमांशी नरवाल का एक कथित अश्लील वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। यह वीडियो हिमांशी की छवि को खराब करने की मंशा से बनाया गया था। पुलिस जांच में स्पष्ट हुआ कि यह वीडियो नकली था, जिसे एआई तकनीक का इस्तेमाल करके बनाया गया था। पुलिस ने मामले की गंभीरता को समझते हुए त्वरित कार्रवाई की और दो आरोपियों—मोहिबुल हक और गुलाब जिलानी, जो बिहार के गोपालगंज जिले के निवासी और आपस में बाप-बेटे हैं—को गिरफ्तार कर लिया।
लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि पहले जिस हिमांशी को “लोकतंत्र की आवाज़”, “संवेदना की प्रतीक” और “भारत की बेटी” बताया जा रहा था, उसी हिमांशी के अपमान पर वही मीडिया और वही तथाकथित लिबरल समूह चुप्पी साध गए। ना तो इस बार टीवी डिबेट हुए, न ही पत्रकारों के ट्वीट देखने को मिले। जो पहले दिन-रात ‘सहानुभूति’ का प्रचार कर रहे थे, इस बार पूरी तरह से मौन रहे—शायद इसलिए कि इस बार आरोपियों के नाम मोहिबुल और गुलाब थे। यानी बात उनके नैरेटिव के खिलाफ थी।
यही दोहरा मापदंड वामपंथी और कथित उदारवादी मीडिया की सबसे बड़ी आलोचना का कारण बनता है। जब मामला उनके “एजेंडा” में फिट बैठता है, तब वो उसे बढ़-चढ़कर दिखाते हैं। लेकिन जब वही पात्र पीड़ित हों, लेकिन अपराधी उनकी पसंद के समुदाय से हों, तो वे खबर को दबा देते हैं या उसे “अज्ञात व्यक्ति” कहकर पेश करते हैं। यही बात नैनीताल के उस हालिया मामले में भी दिखी थी, जहां एक 70 वर्षीय मुस्लिम व्यक्ति ने 12 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया, और वामपंथी मीडिया ने इसे ‘लव अफेयर’ कहकर पेश करने की कोशिश की।
साफ है कि हिमांशी नरवाल की पीड़ा इन समूहों के लिए केवल तब तक मूल्यवान थी, जब तक वह उनके नैरेटिव के अनुकूल थी। एक बार मामला उल्टा पड़ा, तो उन्होंने हिमांशी को भी छोड़ दिया—ना कोई आवाज, ना कोई बहस, ना कोई न्याय की मांग। यह दिखाता है कि उनके लिए ना महिला सशक्तिकरण का असली अर्थ मायने रखता है, ना ही बलिदान देने वालों के परिवारों की गरिमा। उन्हें सिर्फ अपने विचारधारा की चिंता है, और यही भारत के मीडिया की सबसे बड़ी विफलता है।